Blog: दुनिया भर में विधवा महिलाओं की दशा कमोबेश एक जैसी ही, पूर्वाग्रहों और उपेक्षा से उपजा संकट

widowed women

दुनिया भर में विधवा महिलाओं की दशा कमोबेश एक जैसी है। उनके प्रति हिंसा, निंदा, नफरत, उपेक्षा का भाव भारत के अलावा दुनिया के तमाम देशों में परंपरागत रूप से है। भारत में लंबे समय से ऐसी महिलाओं की उपेक्षा हो रही है। यही वजह है कि समाज सुधारकों ने विधवाओं की दशा सुधारने के लिए संघर्ष किया और कई आंदोलन चलाए। भारत में नवजागरण काल में राजा राम मोहन राय, आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद, केशवचंद्र सेन, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले और कुछ विदेशी समाज सुधारकों ने भी विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने के लिए भरसक कोशिशें कीं। अंग्रेजी हुकूमत में सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाया गया, जिसका समाज पर अनुकूल असर पड़ा।

भारत जब आजाद हुआ, तो विकास और प्रगति के साथ देश की दयनीय स्थिति में काफी सुधार आया, लेकिन विधवाओं की दशा में कोई खास बदलाव नहीं आया। इतना जरूर हुआ कि सती प्रथा को गैरकानूनी और संगीन अपराध के दायरे में ला दिया गया। विकास और सामाजिक जागरूकता के तमाम प्रयासों के बावजूद आज विधवा महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक दशा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। पारिवारिक और दूसरे तमाम कारणों से आज भी इनकी दशा समाज के दूसरे वर्गों के मुकाबले चिंताजनक है। अध्ययन इस बात के गवाह हैं कि विकासशील देशों में विधवाओं की दशा विकसित देशों की अपेक्षा कहीं ज्यादा खराब है।

एक अध्ययन के मुताबिक, दुनियाभर में 26 करोड़ से ज्यादा विधवा महिलाएं हैं। इनमें भारत और चीन में सबसे ज्यादा हैं। भारत में इनकी संख्या चार करोड़ से अधिक है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं कमजोर तबके से ताल्लुक रखती हैं। पूर्व सैनिकों की विधवाओं की संख्या सात लाख से अधिक है और सरकार इनके लिए तमाम योजनाओं के माध्यम से मदद करती है। इनमें पुनर्विवाह अनुदान, पेंशन, वित्तीय सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण, चिकित्सा सहायता और रोजगार के अवसर शामिल हैं। आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब में सबसे अधिक पूर्व सैनिकों की विधवाएं रहती हैं, जिनकी संख्या 75 हजार से अधिक है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में करीब 72 हजार, केरल में 71 हजार से ज्यादा, महाराष्ट्र में 67 हजार से अधिक, राजस्थान में करीब 61 हजार और हरियाणा में 58 हजार से ज्यादा विधवाएं हैं। केंद्र सरकार विधवाओं को हर तरह से मदद देती है, जिनमें पारिवारिक पेंशन, महंगाई राहत, बेटी की शादी के लिए अनुदान, विधवा पुनर्विवाह अनुदान, गंभीर रोग अनुदान, व्यावसायिक प्रशिक्षण और प्रधानमंत्री छात्रवृत्ति योजना शामिल हैं। इसके अलावा राज्य सरकारें भी कई योजनाएं चला रही हैं।

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किसी महिला के विधवा होने पर उसके सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक होती है। उनकी संतानों को भी स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता है। ऐसे में उस महिला के सामने खुद को संभालते हुए बच्चों की परवरिश और उनकी शिक्षा के लिए उपयुक्त प्रबंध करना बड़ी चुनौती होती है। सवाल यह है कि बड़े स्तर पर सरकारी और गैरसरकारी राहत मुहैया कराने के बावजूद भारत में विधवाओं की दशा असंतोषजनक क्यों है? आजादी के अठहत्तर वर्ष बाद भी समाज में इनकी दशा में सुधार क्यों नहीं हुआ? भारत में विधवाओं की दशा दुनिया के दूसरे देशों की विधवाओं से खराब क्यों है? पारिवारिक और सामाजिक नजरिए में सकारात्मक बदलाव क्यों नहीं आया, खासकर गांवों में। इनके प्रति उपेक्षा का भाव आज तक नहीं बदला। अशुभ मानने की सोच, अनादर और निंदा करने की लोगों की आदत में व्यापक बदलाव देखने को नहीं मिला है। सवाल ज्यादा हैं, लेकिन इनके जवाब बहुत कम या न के बराबर हैं।

आज भी उत्सव, संस्कार और काज-प्रयोजनों में विधवा महिलाओं को निमंत्रित नहीं किया जाता है। यदि किया भी जाता है, तो उनको वैसा सम्मान नहीं मिलता, जिसकी वे हकदार हैं। यहां तक कि पारिवारिक आयोजनों में उनकी भूमिका भी खत्म कर दी जाती है। सवाल यह है कि अपशगुन विधवा की वजह से ही क्यों होता है? विधुर की मौजूदगी अपशगुन की वजह क्यों नहीं बनती? पति की मृत्यु को महिला के अपशगुन से क्यों जोड़ कर देखा जाता है? असल में अपशुगन तो उपेक्षा और रूढ़िवादी सोच है, जो विधवा महिलाओं की इस दशा के लिए जिम्मेदार है।

किसी पुरुष के विधुर होने पर उसका फिर से विवाह आसानी से हो जाना और महिला का विवाह सहजता से न होना या बाकी जिंदगी अकेले गुजारने के लिए उसे सलाह देना या इसके लिए विवश करने जैसे हालात पैदा करने के पीछे कौन-सी मानसिकता है, जिसकी वजह से विधवाओं की दशा में सुधार नहीं हो पा रहा है।

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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विधवा महिलाओं की समस्याओं और सामाजिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए जागरूकता कार्यक्रमों का उद्देश्य इन्हीं सब सवालों के समाधान के लिए समाज को तैयार करना है। विधवाओं के प्रति पुरुष या स्त्री की मानसिकता के अध्ययन का निष्कर्ष हैरान करने वाला है। पुरुष विधवाओं को जितना अपशगुन मानते हैं, कई सुहागिन महिलाएं उससे कहीं ज्यादा मानती हैं। ऐसे उदाहरण आम हैं, जिनमें शादीशुदा महिला किसी विधवा को अपने साथ उत्सव या दूसरे किसी खास मौकों पर ले जाना या उसके साथ बैठना अच्छा नहीं मानती है। यहां तक कि कई उच्च शिक्षित महिलाओं में भी इस तरह का बर्ताव देखा जा सकता है।

इस मसले पर सामाजिक जागरूकता फैलाने का उद्देश्य यह भी है कि जिन वजहों से कोई महिला विधवा होती है, उन कारणों पर बारीकी से गौर किया जाए और फिर उसके समाधान के लिए ठोस प्रयास किए जाएं। इसके अलावा, किसी महिला के विधवा हो जाने के बाद परिवार और समाज में उसे वैसा ही सम्मान और प्यार मिलना चाहिए जैसे पहले मिलता था। इसके लिए लोगों को जागरूक करना ही काफी नहीं है, बल्कि उन सभी तरह की मानसिकता, मान्यताओं, धारणाओं, हालात और नकारात्मक बर्ताव के प्रति सावधान भी करना है। क्योंकि, विधवा महिलाओं से नफरत, निंदा या उसे प्रताड़ित करना कानून की नजर में तो अपराध है ही, सामाजिक तौर पर भी यह अमानवीय कृत्य है।

एक अध्ययन के मुताबिक, विधवा होने की एक मुख्य वजह पति की गंभीर बीमारी या किसी हादसे में मौत होना भी है। यह प्राकृतिक मौतों से अलग प्रश्न है। कारण कोई भी हो, लेकिन इसके बाद ऐसी महिलाओं के जीवन में उपजी मुश्किलों को दूर करने की कोशिशें बहुत कम होती हैं। खासकर गरीब परिवारों में जहां हालात ऐसे नहीं होते कि बीमारियों से बचाव के लिए समय रहते उचित उपचार की व्यवस्था की जा सके। चीन में भी भारत जैसी स्थिति है। वहां भी कोई महिला विधवा होने पर परिवार व समाज दोनों से उपेक्षित होती है। ऐसी महिलाओं के प्रति बहिष्कार वाली मानसिकता चीन व भारत सहित दुनिया के कई विकासशील देशों में है। विधवा होते ही किसी महिला को अशुभ मानना और उसके साये से भी दूर रहने की मानसिकता आज भी बदली नहीं है। भारत, चीन और दूसरे देशों में कुछ समुदायों में विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं दी जाती है, इस रूढ़िवादी सोच को बदलने की जरूरत है।