मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जग दीप्त हो!

Jagdeep Dhankhar, Vice President resignation, Indian politics

राजा भोज ने जब विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने की कोशिश की तो उसमें लगी बत्तीस पुतलियों ने बारी-बारी से पूछना शुरू किया कि क्या आप इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं? हर बार बैठने की कोशिश के दौरान राजा भोज को पुतलियों से राजा विक्रमादित्य की न्यायप्रियता की कहानी सुनने को मिलती। इन कहानियों को सुनते-सुनते राजा भोज उस सिंहासन को पूजनीय वस्तु के रूप में देखने लगे। ऐसी ही प्रवृत्ति संवैधानिक कुर्सियों की होती है। संवैधानिक प्रक्रियाओं को अंजाम देते, संविधान का हवाला देते हुए आप अपने नियोक्ता के दिए पूर्व नियुक्ति पत्र को भूल जाते हैं। यह भी भूल जाते हैं कि साथ ही समय पूर्व सेवानिवृत्ति के कागज भी टंकित कर दिए गए हैं। फिर आप अपना सब कुछ ईश्वर की मर्जी पर छोड़, जो होगा देखा जाएगा के भाव से संवैधानिक प्रतिनिधि के रूप में व्यवहार करने लगते हैं। पटकथा निर्देशकों को नागवार गुजरता है कि आप अपने किरदार के लिए लिखे संवादों से इतर शब्द बोलें। अब जगदीप धनखड़ से उन शब्दों की उम्मीद करता बेबाक बोल जो जग को सच से दीप्त करे।

पूछ लेते वो बस मिजाज मिराकितना आसान था इलाज मिरा-फहमी बदायूनी

कुछ समय पहले संसद परिसर में धक्कामुक्की में दो सांसदों को चोट लगी थी। चोट देने का आरोप नेता प्रतिपक्ष पर था तो दोनों सांसदों के साथ ‘राष्ट्रीय मरीज’ जैसा व्यवहार हुआ। पार्टी से जुड़े इतने लोग उनसे मिलने पहुंचे कि अस्पताल की व्यवस्था भी परेशान हो गई थी। उस वक्त पार्टी से जुड़ा कोई भी व्यक्ति आह भर सकता था कि काश इनकी जगह मैं घायल होता।

जरा याद करें तीन-चार दशक पहले का दौर जब उपभोक्तावाद चरम पर नहीं था। तब आम घरों में बिस्कुट और डबल रोटी जैसी चीजें मौके पर ही आती थीं। उन दिनों घर के किसी बच्चे की तबीयत खराब होने पर उसे बिस्कुट-डबल रोटी जैसी हल्की चीज दी जाती थी तो घर के दूसरे बच्चे भी दावा करने लगते थे कि उन्हें भी बुखार है, लिहाजा वे भी बिस्कुट खाने के अधिकारी हैं। दो सांसदों की उच्च स्तरीय तीमारदारी देख कर अन्य सोच रहे थे, ‘घायल अच्छे हैं’।

कुछ समय बाद देश के दूसरे सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति ने अपने बीमार होने का हवाला देते हुए पद छोड़ दिया। बीमार का हाल पूछना तो दूर, बीमारी के नाम पर पद छोड़ने की उन्हें इतनी शुभकामना दी गई कि लगा बीमारी कोई शुभ चीज हो गई हो। उनके अस्तित्व को ऐसा शून्य जैसा करार दिया गया कि इतना उपेक्षित होकर अच्छे-भले तंदुरुस्त आदमी की सेहत बिगड़ जाए।

जगदीप धनखड़ के जरिए एक सीधा संदेश मिला है कि राजनीति में पवित्र गाय जैसी कोई अवधारणा नहीं होती। इसके लिए काम पूरा करने के बाद सभी समान रूप से त्याज्य हैं। इस तरह की राजनीति में आप पूर्व-नियुक्ति लेकर आते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद आपकी पूर्व नियुक्ति पर सिर्फ मोहर लगाई जाती है। जिस वक्त पूर्व नियुक्ति पत्र टंकित होते रहते हैं, उसी वक्त आपकी समय पूर्व सेवानिवृत्ति का दस्तावेज भी तैयार किया जा रहा होता है। अगर आप राजनीतिक उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते हैं तो फिर पूर्व दस्तखतशुदा कागज पर तारीख ही डालनी होती है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: कोई शेर सुना कर

पद का मोह ऐसा होता है कि आप सिर्फ पूर्व नियुक्ति वाले कागज पर मोहर लगते देख कर खुश होते हैं। आपको लगता है कि मेरे साथ ऐसा नहीं होगा कि दूसरे कागज की जरूरत पड़ जाए। मेरे साथ ऐसा नहीं होगा…बस यही भ्रम वह ऊर्जा देता है कि आप बंगाल में चुनी हुई सरकार से सीधे टकराना शुरू कर देते हैं। बंगाल का राजनिवास दिल्ली से भेजे गए दूत का ‘दूतावास’ जैसा हो गया था।

आपने वही करना शुरू कर दिया जो विपक्षी दलों वाले शासन में सभी राज्यपाल कर रहे थे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आप राजाओं वाले समय से ज्यादा राजा की तरह व्यवहार कर रहे थे। बंगाल में आपके ‘दूतावास’ की भूमिका बहुत पसंद आई और इसके लिए आपको पुरस्कृत भी किया गया। आपको पुरस्कृत करते वक्त तर्क दिए गए कि आप जाट हैं, किसान हैं। ऊपरी प्रशंसा से आपने मान भी लिया कि जाटों और किसानों के बीच आपकी पैठ है इसलिए सदन में निष्पक्ष दिखने के लिए खुद के किसान पुत्र होने की बात भी कह डाली।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: ऐ ‘मालिक’ तेरे बंदे हम

आप जमीनी हकीकत भूल गए कि अगर जाट और किसानों के बीच आपकी पैठ होती तो 2027 तक वाले नियुक्ति-पत्र की मियाद किसान आंदोलन के साथ ही खत्म हो जाती। दिल्ली में भी सब सीधा और सपाट चल रहा था। आप अपनी पूर्व-नियुक्ति की शर्तों के हिसाब से काम कर रहे थे। तभी देश के संसदीय इतिहास को लेकर एक नया इतिहास बनने का मोड़ आ जाता है। पहली बार कोई उपराष्ट्रपति महाभियोग के दायरे में आने वाले थे। संसद परिसर की सीढ़ियों पर आपके संसद में किए जा रहे व्यवहार की नकल उतारी गई। यह भी शायद पहली बार हुआ था। आपको लगा कि विपक्ष के बीच आपकी कोई इज्जत नहीं है। सत्ता पक्ष से सर्वश्रेष्ठ मिलने के बाद भी दिल में हूक उठी कि उधर से भी इज्जत मिल जाती। इसलिए आपने अपनी नकल को लेकर गहरा रोष व्यक्त किया था।

दावा किया जाता है कि यौगिक क्रियाओं के दौरान व्यक्ति की कुंडलिनी जागृत होती है जो उसके मानस के सभी द्वार खोल देती है। कुछ ऐसा ही संवैधानिक क्रियाओं के साथ भी होता है। जिस परिसर में आप संविधान की शपथ लेकर प्रवेश करते हैं, जहां संविधान बचाने को लेकर संघर्ष शुरू हुआ, वहां आपको भी संवैधानिक प्रतिनिधि बनने जैसा मोह पैदा हो गया। इसे हम संविधान की शक्ति कह सकते हैं कि सब कुछ पाया हुआ व्यक्ति यह जान कर भी संवैधानिक हो जाना चाहता है कि शायद इसके बाद उसके पास कुछ भी न बचे।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जी हुजूर (थरूर)

नियोक्ता के दिए नियुक्ति-पत्र की सेवा शर्तों को भूलकर आप संविधान के साथ संबद्ध दिखने की कोशिश करने लगे। ‘संविधान हत्या-दिवस’ जैसा कठोर शब्द आपके कानों में गूंज रहा था। सोचिए, आपके पक्ष के हिसाब से जिसकी हत्या हो चुकी है, आपको उसके साथ खड़े होने का मोह क्यों दिखा? क्या इसलिए कि भविष्य के नागरिक शास्त्र की किताबों में आपके किरदार की हत्या न हो जाए? भविष्य को यह समझ नहीं आए कि आपके भूत को किस खाते में दर्ज किया जाए। आज देश भी सोचे, उस कथित मृत संविधान की ताकत जिसने आपको संवैधानिक रूप से इतना स्वस्थ कर दिया कि अपने नियोक्ता पक्ष के लिए आप बीमार साबित हो गए।

परदे के पीछे क्या हुआ, हम वह जानने का दावा कतई नहीं कर रहे हैं। हम सिर्फ वही लिख रहे हैं जो परदे के सामने राजनीति के रंगमंच पर किरदार केंद्रित रोशनी और ध्वनि विस्तारक यंत्र के साथ हुआ। आपने कार्य मंत्रणा समिति की बैठक बुलाई। उसके पहले केंद्रीयमंत्री व पार्टी अध्यक्ष जगत प्रसाद नड्डा संसद में अपने-पराए का भेद बताते हुए कह रहे थे, ‘आपको जानना चाहिए आपका कहा कुछ भी रिकार्ड में नहीं जाएगा, जो मैं कहूंगा वह जाएगा।’ जो व्यक्ति संसद परिसर में अपनी नकल से दुखी हुआ था, वह अपनी भूमिका के इस तरह छिन जाने से भी दुखी हुआ होगा। इस्तीफे के महज 11 दिन पहले आपने कहा था ‘दैवीय कृपा रही तो मैं सही समय पर अगस्त 2027 में सेवानिवृत्त हो जाऊंगा।’ यह बोलते वक्त भी आपको पहले से तैयार त्यागपत्र याद आ रहा होगा तभी आपने सेवानिवृत्ति की तारीख बता कर गहरे अंदाज में कहा, दैवीय कृपा रही तो…। कुंडलिनी जागृत होने के बाद आपको अपने लिए सिर्फ ईश्वर से ही उम्मीद थी।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: राज हमारा धर्म तुम्हारा

आज हम बेबाक बोल के माध्यम से यह बता रहे हैं कि आपका कार्यक्रम इस्तीफे के बाद के दिनों का भी तय था। आपको 27 जुलाई को एक किताब के लोकार्पण में उपस्थित होना था। उसमें राज्यसभा में आपके सहयोगी को भी आना था। जिन आयोजनकर्ताओं ने आपको उपराष्ट्रपति के तौर पर बुलाया था वे आपको पूर्व उपराष्ट्रपति के तौर पर भी बुलाने को सहर्ष तैयार थे। न जाने क्या हुआ, आप आने के लिए तैयार नहीं हुए।

मुश्किल यह है कि राज्यसभा में आपके सहयोगी हरिवंश राष्ट्रपति से मिल कर पुष्प गुच्छ देते हुए तस्वीरें भी खिंचवा चुके हैं और उनका नाम अगले उपराष्ट्रपति के तौर पर भी लिया जा रहा है। मूल मुद्दा यह है कि राजनीतिक रंगमंच पर आपका इस्तीफा पटकथा का हिस्सा नहीं था। हम बस सामान्य ज्ञान के आधार पर कह रहे हैं कि कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।

जिस तरह नीतीश कुमार के एकनाथ शिंदे बन जाने की आशंका जताई जा रही है, उसी तरह कहा जा रहा, कहीं आपकी हालत सत्यपाल मलिक जैसी न हो जाए। भारतीय घरों में संतान का नाम सोच-समझ कर उम्मीदों के साथ रखा जाता है। संयोग की बात है कि सत्यपाल मलिक को लगा कि सत्य का पालन करना चाहिए। आपके नाम में दीप है। मौजूदा हालात में आपने जो इतना बड़ा फैसला लिया उसके सच से जग को दीप्त करेंगे या नहीं? करना तो चाहिए।