Bihar News: चुनाव में जीत के लिए ‘फ्री बिजली’ के भरोसे क्यों हैं राजनीतिक दल, सोलर पैनल क्या इस राजनीति को खत्म कर देगा?

Bihar Assembly Elections 2025: बिहार में चुनाव का ऐलान होने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बड़ा ऐलान कर दिया। नीतीश ने कहा कि 1 अगस्त से उनकी सरकार बिहार के लोगों को हर महीने 125 यूनिट बिजली फ्री देगी। नीतीश के इस ऐलान के साथ ही ‘फ्री बिजली’ की राजनीति को लेकर पुरानी बहस फिर से जिंदा होती दिख रही है।

आईए, बात करते हैं कि भारत में ‘फ्री बिजली’ की राजनीति को किसने शुरू किया, किन-किन राज्यों में ‘फ्री बिजली’ के नाम पर चुनाव लड़े गए और कहां किस राजनीतिक दल को कितनी कामयाबीमिली?

‘फ्री बिजली’ देने का ऐलान सबसे पहले दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने साल 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले किया था। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को अपने पहले ही चुनाव में बड़ी जीत मिली थी और उसने दिल्ली में की 70 में से 28 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। माना गया था कि ‘फ्री बिजली’ के साथ ही फ्री पानी का भी इसमें बड़ा रोल रहा था। लेकिन चूंकि बिजली का बिल पानी से ज्यादा आता है इसलिए ‘फ्री बिजली’ का नारा लोगों की जुबां पर चढ़ गया था।

2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में यह फ़ॉर्मूला चल निकला और केजरीवाल के 200 यूनिट तक ‘फ्री बिजली’ के वादे ने वाकई कमाल कर दिया था। दोनों ही चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बड़ी कामयाबी हासिल की। इसके बाद आम आदमी पार्टी उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और जिन राज्यों में चुनाव लड़ने गई, वहां भी उसने ‘फ्री बिजली’ वाला कार्ड चल दिया।

दिल्ली के अलावा इस कार्ड ने पंजाब में भी जबरदस्त काम किया और आम आदमी पार्टी वहां सरकार बनाने में कामयाब रही।

आम आदमी पार्टी को देखते हुए दूसरे राजनीतिक दलों ने भी ‘फ्री बिजली’ के रास्ते पर कदम बढ़ाए। कांग्रेस ने कर्नाटक में 2023 के विधानसभा चुनाव में वादा किया था कि अगर राज्य में उसकी सरकार बनी तो 200 यूनिट तक बिजली फ्री दी जाएगी। पार्टी को उसका फायदा मिला और कर्नाटक में उसकी सरकार बन गई।

तमाम राजनीतिक दलों ने ‘फ्री बिजली’ वाला फ़ॉर्मूला, छत्तीसगढ़ राजस्थान, हिमाचल में भी आजमाया। राजस्थान में पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी हर महीने 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा की थी हालांकि उनकी सरकार चली गई थी लेकिन बीजेपी के यह काम आया। बीजेपी शासित राजस्थान में लोगों को 150 यूनिट बिजली फ्री दी जा रही है।

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‘फ्री बिजली’ की राजनीति को लेकर यह सवाल भी उठता है कि भारत जैसे बेहद गरीब मुल्क में लोगों को मुफ्त बिजली देने की क्या जरूरत है। जब देश के कई इलाकों में जबरदस्त पावर कट लग रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में कई-कई घंटे बिजली गुल रहती है और शहरों में भी बिजली की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। गर्मी और उमस के माहौल में लोगों को बिजली के लंबे पावर कट की वजह से परेशानी झेलनी पड़ती है, ऐसे में क्यों सारे राजनीतिक दल ‘फ्री बिजली’ की बात कर रहे हैं। लेकिन क्या करें राजनीति है ही ऐसी, जहां से आपको वोट मिलेंगे, राजनीतिक दल उस रास्ते पर चल पड़ेंगे।

‘फ्री बिजली’ की राजनीति से गरीब परिवारों को जरूर फायदा होता है। उनकी जेब में कुछ पैसे बचते हैं जो घर खर्च में इस्तेमाल होते हैं लेकिन सवाल यह है कि अगर ‘फ्री बिजली’ की राजनीति इसी तरह चलती रही तो इससे सरकारी खजाने को बहुत बड़ा नुकसान होगा। फ्री की इस राजनीति यानी रेवड़ी की राजनीति को लेकर सोशल मीडिया से लेकर सड़क और सुप्रीम कोर्ट तक में काफी बहस हो चुकी है।

‘फ्री बिजली’ की राजनीति के बीच एक बड़ी चर्चा सोलर पैनल को लेकर है। पिछले कुछ सालों में सोलर पैनल को केंद्र सरकार ने काफी बढ़ावा दिया है। भारत सरकार ने फरवरी 2024 में पीएम सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घरों पर सोलर पैनल लगवाए और इस वजह से उन्हें बिजली फ्री मिलने लगी या फिर बिल काफी कम हो गया। सरकार इसके लिए सब्सिडी भी दे रही है।

केंद्र सरकार का कहना है कि उसकी कोशिश भारत में हर घर को मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने और बिजली के बिल को जीरो करने की है। बड़ी संख्या में लोगों ने इसका फायदा उठाया और इससे उनके बिजली के बिल काफी कम हो गए। ऐसे में अगर सोलर पैनल का विचार आगे बढ़ता रहा तो निश्चित रूप से ‘फ्री बिजली’ की राजनीति का टिक पाना मुश्किल हो सकता है। हालांकि शहरों में लोगों के पास घरों के ऊपर इतनी जगह नहीं होती कि वे वहां सोलर पैनल लगा सकें लेकिन जिन घरों में सोलर पैनल लगाने के लिए जगह है, वे इस योजना के लिए आगे आ रहे हैं।

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मोदी सरकार ने इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हाल ही में ऐलान किया कि अब न सिर्फ मकान मालिक बल्कि किराएदारों को भी पीएम सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना का फायदा मिलेगा और इससे जुड़कर वे मुफ्त बिजली प्राप्त कर सकेंगे। इसके लिए सरकार ने कुछ शर्तें बताई हैं लेकिन यह सुविधा भी दी है कि मकान बदलने पर वे छत से सोलर पैनल को हटाकर कहीं दूसरी जगह भी ले जा सकते हैं।

सोलर पैनल से ऊर्जा की बचत के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा भी होती है इसलिए भी इसे काफी पसंद किया जाता है और बिजली के खर्च का बोझ भी लोगों पर कम होता है।

अब बात फिर से आती है राजनीति पर। हमने देखा कि पिछले कुछ सालों में कई राज्यों में ‘फ्री बिजली’ के फ़ॉर्मूले ने काम किया और यह बात मुफ्त बिजली से आगे बढ़कर फ्री बस यात्रा, मुफ्त इलाज, मुफ्त पानी तक पहुंच गई लेकिन इसमें भी ‘फ्री बिजली’ का नारा सोशल मीडिया और राजनीतिक दलों की जुबान पर काफी चर्चा में रहता है। ‘फ्री बिजली’ के नारे की ताकत को देखते हुए ही आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने पिछले साल दिसंबर में ही बात का ऐलान कर दिया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो बिहार के लोगों को हर महीने 200 यूनिट बिजली फ्री दी जाएगी। देखना होगा कि यह नारा क्या बिहार के विधानसभा चुनाव में भी काम करेगा?

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Non Veg Milk: क्या होता है नॉन वेज मिल्क? भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील में बन रहा बाधा

भारत – अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर चर्चा जारी है। 1 अगस्त 2025 अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से टाइमलाइन तय की गई है। अगर तब तक ट्रेड डील पर मुहर नहीं लग जाती, उसके बाद से अमेरिका भारत पर मनमाना टैरिफ लगाएगा। हालांकि सूत्रों के अनुसार ट्रेड डील में डेयरी और कृषि सेक्टर को लेकर ही मंथन चल रहा है।

अमेरिका अपने डेयरी कारोबार के लिए भारत के मार्केट में एक्सेस चाहता है। डेयरी सेक्टर को लेकर अमेरिका का शाकाहारी और मांसाहारी दूध विवाद का विषय बना हुआ है। दोनों ही देशों के बीच नॉनवेज मिल्क यानी मांसाहारी दूध की भारत में बिक्री को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है। कई लोगों ने नॉनवेज मिल्क शब्द पहली बार सुना होगा।

भारत का डेयरी सेक्टर काफी बड़ा है और 8 करोड़ से अधिक लोगों को इस सेक्टर के तहत रोजगार मिलता है। वैसे भारत में दूध को तो 100 फीसदी शाकाहारी माना जाता है चाहे वह गाय, भैंस या बकरी का हो।

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अमेरिका में नॉनवेज मिल्क उसे माना जाता है जिसे ऐसे जानवर से निकाला जाता है जिसे मांस या उससे संबंधित चीज खिलाई गई हो। अमेरिका में गायों को ऐसा चारा खिलाने की अनुमति है, जिसमें सूअर, मछली, मुर्गी, घोड़े, बिल्ली या कुत्ते के अंग शामिल हो सकते हैं। वहीं प्रोटीन के लिए सूअर और घोड़े का खून भी खिलाया जाता है। ऐसे में इन मवेशियों से निकले दूध को नॉन वेज मिल्क या मांसाहारी दूध कहते हैं।

हालांकि भारत में यह मिल्क नहीं बिक सकता, क्योंकि यहां पर दूध का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी किया जाता है। दूध को सबसे पवित्र माना जाता है और इसीलिए भारत में मवेशियों को शाकाहारी चारा दिया जाता है। इसी वजह से देश मांसाहारी दूध को भारत में अमेरिका को बेचने देने से बच रहा है। सूत्रों के अनुसार भारत ने अमेरिका को कहा है कि अमेरिका जो भी दूध भारत में बेचे, उस पर यह लिखा हो कि यह उन मवेशियों से आया है जिन्हें शाकाहारी चारा खिलाया गया है।

अमेरिका एक प्रमुख डेयरी निर्यातक है और वह भारतीय बाज़ार में अपनी पहुंच चाहता है, जो दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक और उपभोक्ता है। इस पर सहमति जताने का मतलब होगा सस्ते अमेरिकी डेयरी उत्पादों का प्रवेश, जिससे घरेलू कीमतें गिरेंगी और किसानों की आर्थिक स्थिरता ख़तरे में पड़ जाएगी।महाराष्ट्र के एक किसान महेश सकुंडे ने रॉयटर्स को बताया, “सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि दूसरे देशों से सस्ते आयात का असर हम पर न पड़े। अगर ऐसा हुआ, तो पूरे उद्योग को नुकसान होगा और हमारे जैसे किसानों को भी।”

एएनआई की रिपोर्ट के अनुसार एसबीआई ने अनुमान लगाया है कि अगर भारत अमेरिका के लिए अपना बाज़ार खोलता है, तो उसे सालाना 1.03 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा। भारत का पशुपालन एवं डेयरी विभाग खाद्य आयात के लिए पशु चिकित्सा प्रमाणन अनिवार्य करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि उत्पाद ऐसे पशुओं से हैं जिन्हें गोवंश का चारा नहीं खिलाया गया है। अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में इसकी आलोचना की है।

अमेरिका ने TRF को कैसे घोषित किया आतंकवादी संगठन? भारत के लिए ये कितनी बड़ी जीत

अमेरिका ने द रेजिस्टेंस फ्रंट को आतंकी संगठन घोषित कर दिया है। इसे भारत की एक बड़ी कूटनीतिक जीत के रूप में देखा जा रहा है, भारत ने ना सिर्फ पूरी दुनिया में पाकिस्तान को एक्सपोज किया था बल्कि यह भी साबित किया था कि आतंकियों के तार सीधे-सीधे पड़ोसी मुल्क से जुड़े हुए हैं। इस बीच अमेरिका का भी टीआरएफ को आतंकवादी घोषित करना मायने रखता है।

अमेरिका ने साफ शब्दों में कहा है कि लश्कर-ए-तैयबा द्वारा 2008 में किए गए मुंबई हमले के बाद पहलगाम भारत में नागरिकों पर सबसे घातक आतंकवादी हमला है। इसी वजह से अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने कहा, ‘विदेश मंत्रालय ने द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) को Foreign Terrorist Organisation (FTO) और Specially Designated Global Terrorist (SDGT) के रूप में दर्ज किया है।

अब एक सवाल उठता है- आखिर अमेरिकी किसी को कैसे आतंकवादी संगठन घोषित करता है? आखिर वो क्या प्रक्रिया रहती है जिसके जरिए कोई संगठन आतंकवादी संगठन घोषित किया जाता है? सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी संगठन का आतंकवादी संगठन घोषित होना और किसी विशेष शख्स का टेररिस्ट घोषित होना अलग बात है? इन्हीं सवालों के जवाब आसान भाषा में जानने की कोशिश करते हैं-

अब अमेरिका चार स्टेप्स को फॉलो कर किसी भी ग्रुप को आतंकवादी संगठन घोषित करता है, इसे अंग्रेजी में Foreign Terrorist Organization (FTO) कहा जाता है।

पहला स्टेप- सबसे पहले The U.S. Department of State’s Bureau of Counterterrorism पूरी दुनिया में कई संदिग्ध ग्रुप्स की गतिविधियों पर अपनी पैनी नजर रखता है, देखता है कि आखिर उस ग्रुप ने कहां-कहां हमले किए हैं, उसकी क्या प्लानिंग चल रही है, आखिर उसकी ताकत कितनी ज्यादा बढ़ चुकी है।

सेकेंड स्टेप- अब यहां भी एक पूरा क्राइटेरिया होता है, अगर किसी ग्रुप पर लंबे समय से नजर है भी, अगर उसे ग्लोबल आतंकवादी संगठन घोषित करना है, इसके लिए कुछ चीजों का पूरा होना जरूरी है। सबसे पहले तो वो विदेशी पृष्ठभूमि का होना चाहिए, इसके बाद अमेरिकी कानून के मुताबिक वो किसी आतंकी गतिविधि में शामिल होना चाहिए, इसके ऊपर उसकी गतविधि अमेरिकी सुरक्षा के लिए खतरा बननी चाहिए।

थर्ड स्टेप- अब किसी भी ग्रुप को आतंकवादी संगठन घोषित करने के लिए अमेरिका के राज्य सचिव कई दूसरे संबंधित अधिकारियों के साथ मीटिंग करते हैं, वहां पर तमाम आंकड़े डीकोड किए जाते हैं, किसी भी संगठन की पूरी हिस्ट्री निकाली जाती है और फिर सभी से बात कर किसी भी ग्रुप को FTO घोषित किया जाता है।

फोर्थ स्टेप- अब अगर किसी संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाता है, उस स्थिति में उस पर कई सारे प्रतिबंध लग जाते हैं, उन्हें आर्थिक मदद मिलना काफी मुश्किल हो जाता है।

अब टीआरएफ का अंतरराष्ट्री आतंकी संगठन घोषित होना भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत है। असल में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने क्वाड मीटिंग के दौरान भी टीआरएफ का मुद्दा उठाया था। ऐसे में उन मुलाकातों का असर अब दिख रहा है, अमेरिका ने सामने से टीआरएफ को एक आतंकी संगठन माना है। इसे पाकिस्तान के लिए भी एक करारी हार के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि टीआरएफ की गतिविधियां भी सीधे तौर पर वहां से जुड़ी हुई हैं। इस आतंकी संगठन को लश्कर का ही प्रॉक्सी माना जाता है जो खुद एक अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन है।

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Fact Check: कोलंबिया में आग लगने का वीडियो ‘उदयपुर फाइल्स’ से जोड़कर फर्जी दावे के साथ वायरल

लाइटहाउस जर्नलिज्म को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर किया जा रहा एक वीडियो मिला। वीडियो के साथ दावा किया गया था कि इसमें ‘उदयपुर फाइल्स’ फिल्म के एक कलाकार के घर में लगी आग को दिखाया गया है। दावा किया जा रहा है कि मुस्लिम समूह के सदस्यों ने यह कहते हुए आग लगाई कि फिल्म रिलीज नहीं होनी चाहिए।

जांच के दौरान हमने पाया कि शेयर किया जा रहा वीडियो कोलंबिया का था, भारत का नहीं।

फेसबुक यूजर सनातनी भोकाल ने इस वीडियो को भ्रामक दावे के साथ साझा किया।

अन्य यूजर्स भी इसी तरह के भ्रामक दावे के साथ यह वीडियो साझा कर रहे हैं।

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हमने वीडियो को इनविड टूल पर अपलोड करके जांच शुरू की और फिर उससे प्राप्त कीफ्रेम पर रिवर्स इमेज सर्च किया।

हमें यह वीडियो एक एक्स हैंडल, कोलंबिया ओस्कुरा पर मिला।

#ATENTOS. 🚨🚨🚨 Comunidad de Nazareth, mpio/Uribia (Alta Guajira), echó candela a estación de Policía luego de que uniformados, en un presunto error, ases¡naran de Yulbert Barboza, un joven que conducía camioneta parecida a otra usada horas antes en ataque contra Fuerza Pública.… pic.twitter.com/EHF1inAMqb

पोस्ट में कहा गया था (अनुवाद): नाज़ारेथ समुदाय, उरिबिया नगर पालिका (अल्टा गुआजिर), ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी, जब अधिकारियों ने गलती से युलबर्ट बारबोसा को मार डाला। बारबोसा ट्रक चला रहा था।

पुलिस पिछली रात (4 जुलाई) की घटनाओं को लेकर परेशान थी, उसने गोलीबारी कर दी। कुछ ही मिनटों बाद, समुदाय ने गुस्से में पुलिस स्टेशन पर गैसोलीन छिड़ककर आग लगा दी।

सोशल मीडिया पर साझा किए गए कई वीडियो में आग लगने के पलों को देखा जा सकता है। लोग दौड़ते हैं, कुछ चिल्लाते हैं, आग की लपटों से भागने की कोशिश करते हैं। उनका समुदाय न्याय की मांग करता है। युलबर्ट का परिवार जवाब चाहता है।

हमें इस घटना के बारे में एक समाचार रिपोर्ट भी मिली।

रिपोर्ट में कहा गया है: युलबर्ट फर्नांडीज बारबोसा नामक युवक की मौत तब हो गई, जब वह यात्रा कर रहा था। इस घटना में कई पुलिस अधिकारी शामिल थे। उसके समुदाय ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी, जिससे गंभीर क्षति हुई। अब तक, अधिकारियों की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है।

निष्कर्ष: कोलंबिया में अशांति का एक वीडियो भारत से और फिल्म उदयपुर फाइल्स से जोड़कर झूठे दावों के साथ शेयर किया जा रहा है। वायरल दावा भ्रामक है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: ये जो चिलमन है

खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैंसाफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं-दाग देहलवी

लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ जन्मी पत्रकारिता के बारे में माना गया था कि यह जनता की ओर से सत्ता से सवाल करेगी। बीसवीं सदी के सत्तर के दशक के दौरान जब खोजी पत्रकारिता ने जोर पकड़ा तो पत्रकारों की सुरक्षा की चिंता भी सामने आई। 1972 के वाटरगेट कांड में वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार बाब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन ने अपने स्रोत की पहचान छुपाने के लिए खुफिया नाम ‘डीप थ्रोट’ रखा जो कालांतर में सूत्र बना। पत्रकारिता में सूत्र उतना ही पवित्र है जितना लोकतंत्र में संवैधानिक मूल्य। लेकिन जनता को छोड़ सत्ता के खेमे में जा बैठी पत्रकारिता आज ‘सूत्र’ को वह चिलमन बना चुकी है जिसके पीछे असली चेहरा छुपा कर खास एजंडे को खबर के रूप में परोस दिया जाता है। बिहार चुनाव से चर्चा में आए ‘सूत्र’ पर चर्चा करता बेबाक बोल।

पिछले दिनों देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान ने देश की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पार्टी के बारे में खबर छापी कि वह घर-घर जाकर विशेष अभियान चलाएगी। लेकिन जल्द ही उस संस्थान को कहना पड़ गया कि उसकी खबर गलत थी और ऐसा कोई अभियान नहीं चलाया जा रहा है। संस्थान की उस खबर के बल पर कई राजनीतिक दलों ने तीखे बयान भी दे दिए थे। उस राजनीतिक खबर का कुछ ऐसा राजनीतिक माहौल बन गया कि बहुत से लोगों तक खबर के गलत होने की खबर तक नहीं पहुंची और बहुत से लोग उस खबर को गलत बताने वालों को गलत खबर देनेवाला करार दे रहे थे।

अहम बात यह है कि कोई भी उस कथित खबर के साथ खड़ा हो भी नहीं सकता था। कई बार ऐसा होता है कि किसी दबाव में खबर हटा ली जाती है, लेकिन जितने दिनों तक वह खबर वजूद में रहती है, अपना काम कर जाती है। वह खबर सूत्रों के हवाले से छापी गई थी। उस खबर में कहीं यह जिक्र नहीं था कि पार्टी के इतने अहम अभियान को शुरू करने का एलान किसने किया।

सत्ता व व्यवस्था को हिला देनेवाली किसी खबर में सूत्र का इस्तेमाल हो तो बात समझ में आती है। ऐसी खबर में सूत्र का इस्तेमाल करना और सत्ता के द्वारा खारिज कर दिया जाना, पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाना है।

यह मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है और सबको अच्छी तरह से याद है कि एक कथित ‘महा’ राजनीतिक अभियान को लेकर ‘सूत्र’ कैसे खारिज कर दिया गया। इस ताजा अनुभव के बाद अगर देश की कोई लोकतांत्रिक संस्था अपने अभियान को सही साबित करने के लिए सूत्र का हवाला दे तो फिर उस सूचना के साथ क्या किया जाए? जिस सूत्र का आविष्कार पत्रकार और पत्रकारिता की रक्षा करने के लिए किया गया था, आज उसी सूत्र पर जनतांत्रिक अधिकारों के हनन का आरोप लग रहा है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: कोई शेर सुना कर

आज ‘सूत्रधार’ वाली पत्रकारिता का तो यह हाल है कि वह यह नहीं पता लगा सकती कि फलां चुनाव के बाद फलां राज्य में कौन मुख्यमंत्री बनने वाला है या फलां पार्टी, फलां संगठन का अध्यक्ष कौन बनने वाला है? तो क्या सूत्रों का काम खत्म हो जाएगा? नहीं, इन सूत्रों के पास ‘रिश्ता वही सोच नई’ वाली टीवी धारावाहिक मार्का तकनीक है। ये बताते हैं कि अंत-अंत तक मुख्यमंत्री या किसी अन्य का नाम नहीं पता लगने देना फलां पार्टी का ‘तुरुप का पत्ता’ है।

सूत्रों की हर नाकामी को सत्ता का तुरुप का पत्ता घोषित कर दिया जाता है। सूत्रों ने समाज को समझा दिया कि सत्ता की यही सबसे बड़ी खूबी है कि वह किसी को कुछ पता नहीं चलने देती है। कोई चीज पता चल जाने के बाद अगर उस पर हंगामा मचा तो उससे ज्यादा हंगामेदार चीज को सामने लाकर खुद भी हंगामे का हिस्सा बन जाना भी तुरुप का पत्ता ही है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: पीने दे पटना में बैठ कर…

तुरुप ही तुरुप वाले सूत्रधारों से अब पूछने का वक्त आ गया है कि आखिर एक ही बाजी में तुरुप के कितने पत्ते हैं? ऐसी कौन सी बाजी है जिसमें तुरुप के पत्ते खत्म ही नहीं होते? अब तो लगता है कि खबरनवीसी के नाम पर तुरुप का पेड़ लगा दिया गया है जिससे पत्ते गिरते ही रहते हैं।

किसी भी संप्रभु देश के लिए घुसपैठ एक बड़ी समस्या है। अफसोस, यह घुसपैठ भी तुरुप का वह पत्ता है जो चुनावों के वक्त सामने आता है और हर जगह इसका जिम्मेदार विपक्ष होता है। जब लगातार दो पारी सत्ता किसी एक गठबंधन की हो तो दस साल में उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? सीमा पार से अगर घुसपैठिए आ रहे हैं तो आपकी सुरक्षा एजंसियां क्या कर रही हैं?

पिछले दिनों अमेरिका में चुनाव के समय अवैध अप्रवासी सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बने। अहम यह है कि चुनाव खत्म होते ही इस मुद्दे को भुला नहीं दिया गया बल्कि अमेरिकी सरकार ने अपने नियम-कायदों के तहत उन्हें अपने देश से निकाला।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मुड़ मुड़ के न देख…

यहां सवाल यह है कि अगर लोकसभा चुनाव में इतने घुसपैठिए वोट देने में कामयाब हुए थे तो इस नाकामयाबी की जिम्मेदारी किसकी बनती है? आधार कार्ड परियोजना के लिए जब पूरा देश अपनी अंगुलियों के निशान से लेकर आंख की पुतलियों तक के नमूनों को सरकार के हवाले कर रहा था तो क्या उस वक्त अंदाजा नहीं था कि आने वाले समय में भारत की सीमाओं पर घुसपैठियों को यह थोक के भाव में मिलने लगेगा।

किसी नामी-गिरामी नेता ने न सही, किसी सूत्र तक ने अब तक यह सवाल क्यों नहीं पूछा कि आधार कार्ड परियोजना पर देश की जनता के कर का कितना पैसा खर्च हुआ? आखिर इसमें ऐसी क्या बात थी कि नई सत्ता ने पूर्ववर्ती सत्ता के सब कुछ बदल देंगे वाले एलान के बाद भी इससे जुड़े अगुआ का दिल खोल कर स्वागत किया।

बिहार, बंगाल, सिक्किम की सीमा पर प्रवेश करते ही अगर घुसपैठियों का स्वागत आधार कार्ड से होता है तो पिछले दस वर्षों में इसके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई? कथित ‘जंगलराज’ पंद्रह साल का था। अब दस आपके भी पूरे हुए। पंद्रह साल के बुरे को ठीक करने के लिए क्या दस साल इतने कम हैं?

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जी हुजूर (थरूर)

पत्रकारिता खबर के स्रोत की रक्षा के लिए सूत्रों के हवाले से बात करती है। जब संस्थाएं भी सूत्रों का सहारा लेंगी तो पूरा-पूरा नाम कौन लेगा? या आपकी रणनीति सिर्फ काम निकालना है और नाम लेना आपके लक्ष्य में ही नहीं है। पत्रकारिता एक आधुनिक विधा है। पत्रकारिता और साहित्य में फर्क ही सत्य बनाम गल्प का है।

आज कथा सम्राट प्रेमचंद के कथ्य को बदल कर कह सकते हैं कि पत्रकारिता सत्ताधारी राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। यह विपक्ष तले सिर्फ अंधेरा चाहती है। साहित्य ने नाम लेने का साहस पत्रकारिता के कंधों पर डाल दिया था। धीरे-धीरे काल बदला तो पत्रकारिता का आपात दूसरी तरह का हो गया है। अब कहानियां वही हैं, दिन और नाम कहीं नहीं हैं।

अपनी प्रवृत्ति के विपरीत पत्रकारिता आज कहानियां गढ़ने का काम कर रही है। इन कहानियों में भी उलझन है। इन कहानियों में किरदारों का कोई नाम नहीं है। बहुत सोच-समझ कर इन कहानियों के किरदार से नाम छीन लिए जा रहे हैं। जब नाम ही नहीं तो किसी की पहचान कैसे होगी? कृत्रिम मेधा ने तो नाम के खिलाफ वाले अभियान को और आसान कर दिया है। अगर आपने अपनी कहानी में किरदार का नाम लेने की हिम्मत कर भी दी तो कृत्रिम मेधा पाठकों तक उसकी पहुंच ही खत्म कर देगी।

जंगल में मोर नाचा किसने देखा। बिना पहुंच के, बिना प्रसार के आप नाम लेकर करेंगे भी क्या अगर कोई उसे सुने ही नहीं? इसके साथ ही आज की पत्रकारिता ने सूत्र का इस्तेमाल जनता के सवालों से सत्ता व व्यवस्था की रक्षा करने के लिए शुरू कर दिया।

पत्रकारिता के बाद बजरिए बिहार लोकतांत्रिक संस्था ने सूत्र का दामन पकड़ा है। अभी तक नागरिक-शास्त्र की किताबों में हम चुनावों को लोकतंत्र का पर्व पढ़ते थे, जिसे आज की राजनीतिक शैली के आधार पर महापर्व कहा जाने लगा है। भारतीय संस्कृति में किसी चीज को पर्व कहते हैं तो उसमें उत्सवधर्मिता के साथ पवित्रता का भी भाव होता है।

गणतांत्रिक तिथियों को पौराणिक तिथियों की तरह पवित्र मानने वाली जनता के लिए ही नारा दिया गया, ‘पहले मतदान, फिर जलपान’ का। इस नारे को बनाने वाले संस्थान को इतना सावधान तो होना चाहिए कि उस पर पूरी जनता का भरोसा टिका है। अगर उस पर से भरोसा हिला तो जनता की लोकतंत्र को लेकर उत्सवधर्मिता ही खत्म हो जाएगी।

बिहार का आगामी विधानसभा चुनाव अब सिर्फ सत्ता परिवर्तन के लिहाज से ही नहीं संस्थाओं की छवि निर्माण के लिहाज से भी अहम हो गया है। वहां मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया के दौरान दिए जा रहे तथ्य, तर्क का विश्लेषण करते रहना जरूरी है क्योंकि बिहार ही इस प्रक्रिया के देशव्यापी बनने का ‘सूत्रधार’ है।

Devdutt Pattanaik on Arts and Culture: भारत में अहम हैं अलग-अलग धर्मों में अंतिम संस्कार की प्रथाएं, देवदत्त पटनायक से समझिए इनकी संस्कृति

Devdutt Pattanaik on Arts and Culture: (द इंडियन एक्सप्रेस ने UPSC उम्मीदवारों के लिए इतिहास, राजनीति, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कला, संस्कृति और विरासत, पर्यावरण, भूगोल, विज्ञान और टेक्नोलॉजी आदि जैसे मुद्दों और कॉन्सेप्ट्स पर अनुभवी लेखकों और स्कॉलर्स द्वारा लिखे गए लेखों की एक नई सीरीज शुरू की है। सब्जेक्ट एक्सपर्ट्स के साथ पढ़ें और विचार करें और बहुप्रतीक्षित UPSC CSE को पास करने के अपने चांस को बढ़ाएं। इस लेख में, पौराणिक कथाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता रखने वाले प्रसिद्ध लेखक देवदत्त पटनायक ने अपने लेख में भारत में अलग-अलग धर्मों में होने वाली अंतिम संस्कार की प्रथाओं पर चर्चा की है।)

किसी भी समाज में अलग-अलग संस्कृतियां परलोक की अलग-अलग कल्पना करती हैं और इसलिए अंतिम संस्कार की प्रथाएं भी अलग-अलग होती हैं। आमतौर पर एक जीवन में विश्वास करने वाले लोग शवों को कब्रों में रखते हैं और दफ़न स्थलों पर क़ब्र के पत्थर लगाते हैं। इसी तरह पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले लोग शरीर को प्रकृति में विलीन कर देते हैं। वे इसे विलीन करने के लिए आग, जल या जंगली जानवरों की प्रक्रिया को अपनाते हैं।

क्या है ब्राह्मी लिपि का इतिहास, कैसे हुई इसकी शुरुआत? देवदत्त पटनायक से इसके बारे में जाने सबकुछ

असम में 13वीं शताब्दी में दक्षिण-पूर्व एशिया के रास्ते चीन से आए अहोम राजा, मृतकों को मोइदम नामक टीलों में दफनाते थे। कभी-कभी राजाओं के साथ उनके सेवकों या अन्य लोगों को भी दफनाया जाता था। जब वे हिंदू बन गए और दाह संस्कार की प्रथा अपनाने लगे, तो यह प्रथा बदल गई। हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार, पुनर्जन्म के लिए अस्थियों को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था। इस प्रकार अंतिम संस्कार की प्रथाओं में बदलाव संस्कृति में बदलाव को दर्शाता है।

प्रागैतिहासिक काल में बर्तन दफ़नाने का अभिन्न अंग थे। प्राथमिक तौर पर दफ़नाने में प्राचीन लोग मृतकों को बर्तनों में दफ़नाते थे। द्वितीयक दफ़नाने में बर्तनों में दाह संस्कार के बाद एकत्रित अस्थियाँ रखी जाती थीं। तमिल संगम काव्य में एक विधवा द्वारा कुम्हार से अपने मृत पति के लिए एक बड़ा बर्तन बनाने का उल्लेख भी मिलता है। दफ़नाने वाले प्रागैतिहासिक स्थलों में ‘सिस्ट’ भी पाए जाते हैं, जो पत्थरों से बने गड्ढे होते हैं, जो आमतौर पर दक्षिण भारत में पाए जाते हैं।

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हड़प्पा सभ्यता में दाह संस्कार तो होता था लेकिन कई समुदाय मृतकों को दफनाते थे। हड़प्पा में ऐसे कब्रिस्तान मिले हैं, जहां लोगों के पास बहुत कम दफ़नाने का सामान जैसे मनके और कुछ बर्तन था। इसके अलावा धोलावीरा में ऐसे टीले हैं, जहां कोई शव नहीं हैं शायद ये उन लोगों की याद में बनाए गए थे जो दूर देशों की यात्रा करते समय मारे गए थे।

दक्कन क्षेत्र के महापाषाण लौह युग (1000 ईसा पूर्व) के समाधि स्थलों से संबंधित हैं। महापाषाण संस्कृति दक्षिण भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट विशेषता है, ये उस समय जब वैदिक संस्कृति गंगा-यमुना नदी घाटी में फल-फूल रही थी। समाधि स्थलों पर दो ऊर्ध्वाधर पत्थरों से एक मंदिर बनाया जाता था, जिसके ऊपर एक शीर्षशिला क्षैतिज रूप से रखी जाती थी, जिसे डोलमेन कहा जाता है। इस संरचना के नीचे मृतकों की स्मृति में अस्थियाँ और खाद्य पदार्थ रखे जाते थे।

वेदों में दाह संस्कार और दफ़नाने, दोनों ही प्रथाओं का उल्लेख है। रामायण और महाभारत , दोनों में दाह संस्कार का उल्लेख मिलता है। दशरथ का दाह संस्कार किया गया। रावण का दाह संस्कार किया गया। कौरवों का दाह संस्कार किया गया। अंतिम संस्कार के बाद की रस्मों में मृतक, अर्थात् पितृ को भोजन कराना शामिल था।

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अंतिम संस्कार आमतौर पर उच्च जातियों के समुदायों में होते हैं, जो लकड़ी का प्रबंध कर सकते हैं। कई निम्न जातियों के समुदाय आज भी पूर्व-वैदिक दफ़नाने की प्रथाओं का पालन करते हैं। दफ़नाने का कार्य अक्सर परिवार के स्वामित्व वाले खेतों में किया जाता है ताकि स्वामित्व और स्वामित्व का संकेत मिल सके।

भारत के कई हिस्सों में लोगों को बैठी हुई अवस्था में ही दफनाया जाता था, खासकर अगर वे किसी धार्मिक समुदाय से संबंधित होते थे। ऐसा माना जाता था कि किसी धार्मिक समुदाय से जुड़े लोगों का पुनर्जन्म नहीं होता। कई हिंदू मठों में, संत को बैठी हुई अवस्था में ही दफनाया जाता था और उसके ऊपर एक विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए गमले में तुलसी लगाई जाती थी।

जैन भिक्षुओं की कब्र पर अक्सर एक पेड़ लगाया जाता था या उसके ऊपर एक स्तूप बनाया जाता था। दाह संस्कार के बाद उनकी अस्थियों पर स्तूप बनाने की प्रथा बौद्धों द्वारा भी अपनाई जाती थी। वास्तव में वैदिक लोग बौद्धों को अस्थि पूजक मानकर उनकी निंदा करते थे। शरीर या अस्थियों को दफ़नाने वाले बौद्ध स्थलों को स्तूप कहा जाता था, जबकि हिंदू और जैन स्थलों को समाधि कहा जाता था।

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समाधि स्थल बनाए जाते थे जहाँ दफ़नाने या दाह संस्कार स्थल को एक मंदिर द्वारा चिह्नित किया जाता था और उस पर शिवलिंग की एक प्रतिमा स्थापित की जाती थी। कुछ चोल राजाओं द्वारा इसका प्रचलन था। राजस्थान, गुजरात और भारत के कई हिस्सों में वीर शिलाओं का उपयोग उस स्थान को चिह्नित करने के लिए किया जाता था, जहां कोई योद्धा गांव को हमलावरों या जंगली जानवरों से बचाते हुए शहीद हुआ था। सती शिलाओं का उपयोग उन स्थानों को चिह्नित करने के लिए किया जाता था, जहां स्त्रियां अपने पतियों की चिता पर आत्मदाह करती थीं। कर्नाटक में निशिधि शिलाओं का उपयोग उन स्थानों को चिह्नित करने के लिए किया जाता था जहां जैन मुनियों ने मृत्युपर्यन्त उपवास किया था।

मकबरे बनाने की शुरुआत दसवीं शताब्दी के बाद भारत में इस्लामी संस्कृति के आगमन के साथ हुई लेकिन मकबरे बनाना कोई अरबी प्रथा नहीं है बल्कि, यह मध्य एशिया से आई है। अरब लोग मृतकों को दफ़नाते थे, और प्राचीन पारसी लोग अपने मृतकों को प्राकृतिक वातावरण और गिद्ध जैसे जंगली पक्षियों के सामने छोड़ देते थे। मध्य एशियाई जनजातियों, जिन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया था। उन्हें भी मकबरे बनाने का शौक था और उन्होंने भारत में स्मारकीय मकबरों का निर्माण शुरू किया। इसलिए, दसवीं शताब्दी के बाद, हमें भारत में खिलजी, तुगलक, लोदी और सूरी के मकबरे मिलते हैं और उसके बाद प्रसिद्ध मुगल स्मारक ताजमहल भी है।

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इस मुस्लिम प्रथा का पालन करते हुए, कई राजपूतों ने शाही दाह-संस्कार स्थल पर गुंबद और मंडप बनवाना शुरू कर दिया। इन्हें क्षत्रियां कहा जाता था। कुछ क्षत्रियां महाराष्ट्र और गुजरात में भी पाई जाती हैं। यह प्रथा 13वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक प्रचलित रही। आज भी जिन स्थानों पर राजनीतिक नेताओं का दाह-संस्कार किया जाता है, वहां ‘समाधियां’ बनाई जाती हैं। यह वैदिक मान्यता के विरुद्ध था कि पुनर्जन्म की सुविधा के लिए मृतक का कोई निशान नहीं रखा जाना चाहिए।

पूर्वोत्तर भारत में मोनपा जैसे आदिवासी समुदाय हैं, जहां शवों को 108 टुकड़ों में काटकर नदियों में फेंक दिया जाता है ताकि मछलियाँ उन्हें खा जाएं। इस प्रकार, भारत भर में अंतिम संस्कार स्मारकों का अध्ययन देश की विविध धार्मिक प्रथाओं और मान्यताओं के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

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(देवदत्त पटनायक एक प्रसिद्ध पौराणिक कथाकार हैं जो कला, संस्कृति और विरासत पर लिखते हैं।)

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Mumbai Train Blast: 11 जुलाई 2006 को क्या हुआ था? मुंबई ट्रेन ब्लास्ट की पूरी कहानी

Mumbai Local Train Bomb Blast Case: मुंबई लोकल ट्रेन बम ब्लास्ट मामले में हाई कोर्ट ने सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। जिस हमले में 189 लोगों की दर्दनाक मौत हुई थी, उसमें हाई कोर्ट के फैसले ने सभी को हैरान कर दिया है। सुनवाई के दौरान यह बात सामने आई है कि जांच एजेंसियां पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर सकीं और इसी वजह से इन 12 लोगों को बरी कर दिया गया।

हाई कोर्ट के इस एक फैसले के बाद सभी के मन में एक सवाल आ रहा है- आखिर 11 जुलाई 2006 को ऐसा क्या हुआ था? ऐसे कौन से बम धमाके हुए थे जिसने 189 लोगों की जान ले ली 11 जुलाई की शाम को मुंबई में ऐसा क्या हुआ कि लोगों ने उसे 1992 के धमाकों के बाद सबसे बड़ा हमला करार दिया?

असल में 11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों को निशाना बनाया गया था। ये वही ट्रेनें हैं जिन्हें लोग मायानगरी की लाइफ लाइन तक कहते हैं, कहीं भी जाना हो तो टैक्सी से ज्यादा लोग इन्हीं ट्रेनों का इस्तेमाल करते हैं। इससे समय भी बचता है और पैसे भी कम लगते हैं। लेकिन आरोपियों ने इसी बात का फायदा उठाया, ज्यादा भीड़ को देखते हुए उनकी तरफ से इन्हीं लोकल ट्रेनों को निशाने पर लिया गया। सबसे पहला धमाका शाम को 6:24 पर हुआ, उसके बाद सात और बम धमाके हुए, बात चाहे माटुंगा रूट की हो, बांद्रा की हो, खार रोड की हो, माहिम जंक्शन की हो, जोगेश्वरी की हो, भयंदर की हो या फिर बोरिवली रेलवे स्टेशन की, सभी जगह एक के बाद एक बड़े धमाके हुए और भारी तबाही देखने को मिली।

हैरानी की बात यह थी इन बम धमाकों को साजिश के तहत अंजाम दिया गया, सभी धमाकों में सिर्फ एक से 2 मिनट का ही अंतर रहा। पहला धमाका 6:24 पर हुआ, इसी तरह बाकी कई और धमाके हुए और 11 मिनट के अंदर पूरी मुंबई बम ब्लास्ट से दहल गई।

चर्चगेट बोरीवली के बीच जो लोकल ट्रेन चली थी, सबसे ज्यादा 43 मौतें वहीं पर देखने को मिलीं। मीरा रोड भयंदर की लोकल ट्रेन में 31 लोगों की जान चली गई, इसी तरह चर्चगेट-विरार लोकल ट्रेन में 28 लोगों ने और चर्चगेट- बोरिवली लोकल ट्रेन में भी 28 लोगों ने अपनी जान गंवाई।

जब इन बम ब्लास्ट की जांच शुरू हुई तो पता चला कि मुंबई के वेस्टर्न लाइन की लोकल ट्रेनों को ही निशाने पर लिया गया था। वही प्रेशर कुकर की मदद से उन धमाकों को अंजाम दिया गया। जिन भी कोच में धमाके हुए थे, उनके परखच्चे पूरी तरह उड़ गए। जांच में ये भी पाया गया कि आरोपियों ने दूर जाने वाली ट्रेनों को अपने निशाने पर लिया था क्योंकि सबसे ज्यादा ऑफिस जाने वाले लोग उन्हीं ट्रेनों में मौजूद थे। पाकिस्तान से ऑपरेट कर रहे लश्कर ऐ तैयबा ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी।

अब इस बड़े आतंकी हमले की बाद निचली अदालत में तो पांच दोषियों को फांसी की सजा और सात को उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी। लेकिन जब बाद में इन्हीं फैसलों को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई तो मामला पूरी तरह पलट गया। आरोपियों के वकील ने दावा किया कि जबरदस्ती टॉर्चर कर पुलिस ने कबूलनामा लिखवाया गया। इसी वजह से पुलिस का केस कमजोर हो गया और हाई कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी किया।

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Fact Check: टीवी सीरियल की शूटिंग का वीडियो दहेज हत्या का बताकर गलत दावे के साथ वायरल

लाइटहाउस जर्नलिज्म को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वायरल हो रहा एक वीडियो मिला। वीडियो के साथ यह दावा किया जा रहा था कि इसमें एक महिला को दिखाया गया है जिसे उसके ससुराल वालों ने दहेज संबंधी कारणों से मार डाला था।

जांच के दौरान, हमने पाया कि यह वीडियो एक टीवी सीरियल की शूटिंग का है और इसका दहेज हत्या से कोई संबंध नहीं है।

इंस्टाग्राम यूजर vlogs_adalhat_mirzapur_up_63 ने इस वीडियो को भ्रामक दावे के साथ साझा किया है।

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अन्य यूजर्स भी इसी तरह के दावे के साथ यही वीडियो साझा कर रहे हैं।

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हमने वायरल वीडियो से प्राप्त कीफ्रेम पर रिवर्स इमेज सर्च करके जांच शुरू की।

इससे हमें दो साल पहले YouTube पर अपलोड किया गया एक वीडियो मिला:

वीडियो पर ‘शूटिंग’ लिखा हुआ था।

हमें ‘infocast.co.in’ नामक वेबसाइट पर वीडियो का एक स्क्रीनशॉट मिला। इससे पता चला कि वीडियो में दिख रहा व्यक्ति अभिनेता सहीम खान था।

इसके बाद हमने सहीम खान की इंस्टाग्राम प्रोफाइल चेक की और 8 नवंबर, 2022 को ‘शूटिंग टाइम’ कैप्शन के साथ प्रोफाइल पर वायरल वीडियो अपलोड किया हुआ मिला।

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निष्कर्ष: एक टेलीविजन सीरियल की शूटिंग का पुराना वीडियो इस दावे के साथ शेयर किया जा रहा है कि इसमें दहेज की वजह से मौत हुई है। वायरल दावा भ्रामक है।

PAK vs BAN: पाकिस्तान 19.3 ओवर में 110 रन पर ऑलआउट, बांग्लादेश के खिलाफ 7 बल्लेबाज नहीं छू पाए दहाई का आंकड़ा

PAK vs BAN 1st T20I: बांग्लादेश के खिलाफ 3 मैचों की टेस्ट सीरीज के पहले मैच में पाकिस्तान की बैटिंग काफी खराब रही और ये टीम 20 ओवर भी पूरा नहीं खेल पाई। इस मैच में बांग्लादेश ने टॉस जीता था और पहले गेंदबाजी करने का फैसला किया था। पाकिस्तान की बल्लेबाजी इस मैच में अच्छी नहीं रही और 7 बल्लेबाज दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू पाए।

बांग्लादेश के खिलाफ पहले बैटिंग करते हुए इस मैच में पाकिस्तान की टीम 19.3 ओवर में 110 रन बनाकर आउट हो गई और बांग्लादेश को जीत के लिए 111 रन का टारगेट दिया। पाकिस्तान के लिए फखर जमान ने ही टीम के लिए उपयोगी पारी खेली जबकि अन्य बल्लेबाजों ने काफी निराश किया।

इस मैच में बांग्लादेश के गेंदबाज शुरू से ही पाकिस्तानी बल्लेबाजों पर हावी दिखे। हालांकि टीम के ओपनर बल्लेबाज फखर जमान ने अच्छी पारी खेली और 34 गेंदों पर एक छक्का और 6 चौकों की मदद से 44 रन की पारी खेली। इस टीम के विकेट नियमित अंतराल पर गिरते रहे और पाकिस्तान बड़ा स्कोर करने से चूक गई।

पाकिस्तान के लिए खुशदिल शाह ने 18 रन जबकि अब्बास अफरीदी ने 22 रन की पारी खेली। इनके अलावा 7 बल्लेबाज तो दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाए। सईम अयूब 6 रन तो मोहम्मद हासिल 4 रन जबकि कप्तान सलमान आगा 3 रन बनाकर आउट हो गए। इनके अलावा मोहम्मद नवाज ने 3 रन जबकि फहीम अशरफ ने 5 रन बनाए।

हसन नवाज और सलमान मिर्जा तो अपना खाता भी नहीं खोल पाए जबकि अबरार अहमद बिना खाता खोले नाबाद रहे। बांग्लादेश की तरफ से तास्कीन अहमद 3 विकेट लेकर सर्वाधिक सफल गेंदबाज रहे जबकि मुस्ताफिजुर रहमान ने 2 विकेट लिए तो वहीं मेंहदी हसन और तंजीम हसन ने एक-एक विकेट लिए।

अगले 3 WTC final भी इंग्लैंड में होंगे, ICC ने किया कंफर्म

वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप (WTC) के अगले तीन संस्करणों के खिताबी मुकाबले इंग्लैंड में ही खेले जाएंगे। इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (ICC) ने रविवार (20 जुलाई) को इसकी पुष्टि की। भारत ने भी फाइनल की मेजबानी में कथित रूप से रुचि दिखाई थी। यह फैसला सिंगापुर में आयोजित आईसीसी की वार्षिक आम बैठक के दौरान लिया गया।

आईसीसी द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि बोर्ड ने “हाल के फाइनल की मेजबानी के सफल ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर इंग्लैंड एंड वेल्स क्रिकेट बोर्ड को 2027, 2029 और 2031 संस्करणों के लिए आईसीसी वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप फाइनल की मेजबानी के अधिकार देने की पुष्टि की है।”

अब तक, डब्ल्यूटीसी फाइनल के तीनों संस्करण इंग्लैंड में आयोजित किए गए हैं। पहले दो फाइनल क्रमशः साउथेम्प्टन के द रोज बाउल (न्यूजीलैंड ने भारत को हराया) और लंदन के द ओवल (ऑस्ट्रेलिया ने भारत को हराया) में आयोजित किए गए थे। 2025 में साउथ अफ्रीका ने लॉर्ड्स में ऑस्ट्रेलिया को हराया।

मई में पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार बीसीसीआई 2025-2027 साइकल के डब्ल्यूटीसी फाइनल की मेजबानी भारत में कराने पर विचार कर रहा था। इस साल की शुरुआत में जिम्बाब्वे में आईसीसी की मुख्य कार्यकारी समिति की बैठक में इस बारे में चर्चा हुई थी। इस साल साउथ अफ्रीका बनाम ऑस्ट्रेलिया के बीच तीसरा डब्ल्यूटीसी फाइनल लॉर्ड्स क्रिकेट ग्राउंड पर खचाखच भरे स्टैंड्स में खेला गया, जहां प्रोटियाज टीम ने आईसीसी ट्रॉफी जीतने के अपने सूखे को खत्म किया। पहली बार डब्ल्यूटीसी फाइनल भारत के बगैर हुआ था।

आईसीसी ने यह भी कहा कि बोर्ड को अफगान मूल की विस्थापित महिला क्रिकेटरों के समर्थन से संबंधित प्रगति पर एक जानकारी प्राप्त हुई है। आईसीसी परिवार में दो नए सदस्य शामिल हुए हैं, जिससे कुल सदस्यों की संख्या 110 हो गई है। तिमोर-लेस्ते क्रिकेट महासंघ और जाम्बिया क्रिकेट संघ औपचारिक रूप से आईसीसी एसोसिएट सदस्य बन गए हैं।