खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैंसाफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं-दाग देहलवी
लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ जन्मी पत्रकारिता के बारे में माना गया था कि यह जनता की ओर से सत्ता से सवाल करेगी। बीसवीं सदी के सत्तर के दशक के दौरान जब खोजी पत्रकारिता ने जोर पकड़ा तो पत्रकारों की सुरक्षा की चिंता भी सामने आई। 1972 के वाटरगेट कांड में वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार बाब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन ने अपने स्रोत की पहचान छुपाने के लिए खुफिया नाम ‘डीप थ्रोट’ रखा जो कालांतर में सूत्र बना। पत्रकारिता में सूत्र उतना ही पवित्र है जितना लोकतंत्र में संवैधानिक मूल्य। लेकिन जनता को छोड़ सत्ता के खेमे में जा बैठी पत्रकारिता आज ‘सूत्र’ को वह चिलमन बना चुकी है जिसके पीछे असली चेहरा छुपा कर खास एजंडे को खबर के रूप में परोस दिया जाता है। बिहार चुनाव से चर्चा में आए ‘सूत्र’ पर चर्चा करता बेबाक बोल।
पिछले दिनों देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान ने देश की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पार्टी के बारे में खबर छापी कि वह घर-घर जाकर विशेष अभियान चलाएगी। लेकिन जल्द ही उस संस्थान को कहना पड़ गया कि उसकी खबर गलत थी और ऐसा कोई अभियान नहीं चलाया जा रहा है। संस्थान की उस खबर के बल पर कई राजनीतिक दलों ने तीखे बयान भी दे दिए थे। उस राजनीतिक खबर का कुछ ऐसा राजनीतिक माहौल बन गया कि बहुत से लोगों तक खबर के गलत होने की खबर तक नहीं पहुंची और बहुत से लोग उस खबर को गलत बताने वालों को गलत खबर देनेवाला करार दे रहे थे।
अहम बात यह है कि कोई भी उस कथित खबर के साथ खड़ा हो भी नहीं सकता था। कई बार ऐसा होता है कि किसी दबाव में खबर हटा ली जाती है, लेकिन जितने दिनों तक वह खबर वजूद में रहती है, अपना काम कर जाती है। वह खबर सूत्रों के हवाले से छापी गई थी। उस खबर में कहीं यह जिक्र नहीं था कि पार्टी के इतने अहम अभियान को शुरू करने का एलान किसने किया।
सत्ता व व्यवस्था को हिला देनेवाली किसी खबर में सूत्र का इस्तेमाल हो तो बात समझ में आती है। ऐसी खबर में सूत्र का इस्तेमाल करना और सत्ता के द्वारा खारिज कर दिया जाना, पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाना है।
यह मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है और सबको अच्छी तरह से याद है कि एक कथित ‘महा’ राजनीतिक अभियान को लेकर ‘सूत्र’ कैसे खारिज कर दिया गया। इस ताजा अनुभव के बाद अगर देश की कोई लोकतांत्रिक संस्था अपने अभियान को सही साबित करने के लिए सूत्र का हवाला दे तो फिर उस सूचना के साथ क्या किया जाए? जिस सूत्र का आविष्कार पत्रकार और पत्रकारिता की रक्षा करने के लिए किया गया था, आज उसी सूत्र पर जनतांत्रिक अधिकारों के हनन का आरोप लग रहा है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: कोई शेर सुना कर
आज ‘सूत्रधार’ वाली पत्रकारिता का तो यह हाल है कि वह यह नहीं पता लगा सकती कि फलां चुनाव के बाद फलां राज्य में कौन मुख्यमंत्री बनने वाला है या फलां पार्टी, फलां संगठन का अध्यक्ष कौन बनने वाला है? तो क्या सूत्रों का काम खत्म हो जाएगा? नहीं, इन सूत्रों के पास ‘रिश्ता वही सोच नई’ वाली टीवी धारावाहिक मार्का तकनीक है। ये बताते हैं कि अंत-अंत तक मुख्यमंत्री या किसी अन्य का नाम नहीं पता लगने देना फलां पार्टी का ‘तुरुप का पत्ता’ है।
सूत्रों की हर नाकामी को सत्ता का तुरुप का पत्ता घोषित कर दिया जाता है। सूत्रों ने समाज को समझा दिया कि सत्ता की यही सबसे बड़ी खूबी है कि वह किसी को कुछ पता नहीं चलने देती है। कोई चीज पता चल जाने के बाद अगर उस पर हंगामा मचा तो उससे ज्यादा हंगामेदार चीज को सामने लाकर खुद भी हंगामे का हिस्सा बन जाना भी तुरुप का पत्ता ही है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: पीने दे पटना में बैठ कर…
तुरुप ही तुरुप वाले सूत्रधारों से अब पूछने का वक्त आ गया है कि आखिर एक ही बाजी में तुरुप के कितने पत्ते हैं? ऐसी कौन सी बाजी है जिसमें तुरुप के पत्ते खत्म ही नहीं होते? अब तो लगता है कि खबरनवीसी के नाम पर तुरुप का पेड़ लगा दिया गया है जिससे पत्ते गिरते ही रहते हैं।
किसी भी संप्रभु देश के लिए घुसपैठ एक बड़ी समस्या है। अफसोस, यह घुसपैठ भी तुरुप का वह पत्ता है जो चुनावों के वक्त सामने आता है और हर जगह इसका जिम्मेदार विपक्ष होता है। जब लगातार दो पारी सत्ता किसी एक गठबंधन की हो तो दस साल में उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? सीमा पार से अगर घुसपैठिए आ रहे हैं तो आपकी सुरक्षा एजंसियां क्या कर रही हैं?
पिछले दिनों अमेरिका में चुनाव के समय अवैध अप्रवासी सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बने। अहम यह है कि चुनाव खत्म होते ही इस मुद्दे को भुला नहीं दिया गया बल्कि अमेरिकी सरकार ने अपने नियम-कायदों के तहत उन्हें अपने देश से निकाला।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मुड़ मुड़ के न देख…
यहां सवाल यह है कि अगर लोकसभा चुनाव में इतने घुसपैठिए वोट देने में कामयाब हुए थे तो इस नाकामयाबी की जिम्मेदारी किसकी बनती है? आधार कार्ड परियोजना के लिए जब पूरा देश अपनी अंगुलियों के निशान से लेकर आंख की पुतलियों तक के नमूनों को सरकार के हवाले कर रहा था तो क्या उस वक्त अंदाजा नहीं था कि आने वाले समय में भारत की सीमाओं पर घुसपैठियों को यह थोक के भाव में मिलने लगेगा।
किसी नामी-गिरामी नेता ने न सही, किसी सूत्र तक ने अब तक यह सवाल क्यों नहीं पूछा कि आधार कार्ड परियोजना पर देश की जनता के कर का कितना पैसा खर्च हुआ? आखिर इसमें ऐसी क्या बात थी कि नई सत्ता ने पूर्ववर्ती सत्ता के सब कुछ बदल देंगे वाले एलान के बाद भी इससे जुड़े अगुआ का दिल खोल कर स्वागत किया।
बिहार, बंगाल, सिक्किम की सीमा पर प्रवेश करते ही अगर घुसपैठियों का स्वागत आधार कार्ड से होता है तो पिछले दस वर्षों में इसके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई? कथित ‘जंगलराज’ पंद्रह साल का था। अब दस आपके भी पूरे हुए। पंद्रह साल के बुरे को ठीक करने के लिए क्या दस साल इतने कम हैं?
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जी हुजूर (थरूर)
पत्रकारिता खबर के स्रोत की रक्षा के लिए सूत्रों के हवाले से बात करती है। जब संस्थाएं भी सूत्रों का सहारा लेंगी तो पूरा-पूरा नाम कौन लेगा? या आपकी रणनीति सिर्फ काम निकालना है और नाम लेना आपके लक्ष्य में ही नहीं है। पत्रकारिता एक आधुनिक विधा है। पत्रकारिता और साहित्य में फर्क ही सत्य बनाम गल्प का है।
आज कथा सम्राट प्रेमचंद के कथ्य को बदल कर कह सकते हैं कि पत्रकारिता सत्ताधारी राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। यह विपक्ष तले सिर्फ अंधेरा चाहती है। साहित्य ने नाम लेने का साहस पत्रकारिता के कंधों पर डाल दिया था। धीरे-धीरे काल बदला तो पत्रकारिता का आपात दूसरी तरह का हो गया है। अब कहानियां वही हैं, दिन और नाम कहीं नहीं हैं।
अपनी प्रवृत्ति के विपरीत पत्रकारिता आज कहानियां गढ़ने का काम कर रही है। इन कहानियों में भी उलझन है। इन कहानियों में किरदारों का कोई नाम नहीं है। बहुत सोच-समझ कर इन कहानियों के किरदार से नाम छीन लिए जा रहे हैं। जब नाम ही नहीं तो किसी की पहचान कैसे होगी? कृत्रिम मेधा ने तो नाम के खिलाफ वाले अभियान को और आसान कर दिया है। अगर आपने अपनी कहानी में किरदार का नाम लेने की हिम्मत कर भी दी तो कृत्रिम मेधा पाठकों तक उसकी पहुंच ही खत्म कर देगी।
जंगल में मोर नाचा किसने देखा। बिना पहुंच के, बिना प्रसार के आप नाम लेकर करेंगे भी क्या अगर कोई उसे सुने ही नहीं? इसके साथ ही आज की पत्रकारिता ने सूत्र का इस्तेमाल जनता के सवालों से सत्ता व व्यवस्था की रक्षा करने के लिए शुरू कर दिया।
पत्रकारिता के बाद बजरिए बिहार लोकतांत्रिक संस्था ने सूत्र का दामन पकड़ा है। अभी तक नागरिक-शास्त्र की किताबों में हम चुनावों को लोकतंत्र का पर्व पढ़ते थे, जिसे आज की राजनीतिक शैली के आधार पर महापर्व कहा जाने लगा है। भारतीय संस्कृति में किसी चीज को पर्व कहते हैं तो उसमें उत्सवधर्मिता के साथ पवित्रता का भी भाव होता है।
गणतांत्रिक तिथियों को पौराणिक तिथियों की तरह पवित्र मानने वाली जनता के लिए ही नारा दिया गया, ‘पहले मतदान, फिर जलपान’ का। इस नारे को बनाने वाले संस्थान को इतना सावधान तो होना चाहिए कि उस पर पूरी जनता का भरोसा टिका है। अगर उस पर से भरोसा हिला तो जनता की लोकतंत्र को लेकर उत्सवधर्मिता ही खत्म हो जाएगी।
बिहार का आगामी विधानसभा चुनाव अब सिर्फ सत्ता परिवर्तन के लिहाज से ही नहीं संस्थाओं की छवि निर्माण के लिहाज से भी अहम हो गया है। वहां मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया के दौरान दिए जा रहे तथ्य, तर्क का विश्लेषण करते रहना जरूरी है क्योंकि बिहार ही इस प्रक्रिया के देशव्यापी बनने का ‘सूत्रधार’ है।