जनसत्ता प्रश्नकाल: सेहत और साख दोनों खो चुके नीतीश, चंद हफ्तों के मुख्यमंत्री

जन सुराज पार्टी के नेता पवन कुमार वर्मा का कहना है कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की कोशिश नाकाम होने के बाद प्रशांत किशोर ने राजनीति में कदम रखा। उनका दावा है कि जन सुराज पार्टी इस धारणा को बदल देगी कि बिहार बदल नहीं सकता। उन्होंने कहा कि हम धर्म और जाति से हट कर बुनियादी बदलाव की राजनीति कर रहे हैं। उनका आरोप है कि खराब सेहत के कारण नीतीश कुमार का अपने मंत्रिमंडल व मंत्रियों के भ्रष्टाचारपर नियंत्रण नहीं है, जिस वजह से वे साख खो चुके हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि कर्ज में डूबे बिहार में नीतीश कुमार सरकार रेवड़ियां बांट रही है जो संविधान की सोच के विपरीत है। नई दिल्ली में पवन कुमार वर्मा के साथ कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज की बातचीत के चुनिंदा अंश।

भारतीय राजनीति में प्रशांत किशोर चुनावी रणनीतिकार के रूप में उभरे। 2014 के केंद्रीय सत्ता परिवर्तन से लेकर कई राज्यों में सरकारें बनवाने का श्रेय उन्हें मिला। फिर ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने प्रत्यक्ष राजनीति में आने का फैसला किया?पवन कुमार वर्मा: प्रशांत किशोर लगभग दस वर्षों तक चुनावी रणनीतिकार के रूप में रहे। प्रधानमंत्री से लेकर कई मुख्यमंत्रियों के सत्ता हासिल करने में उनकी भूमिका रही। उनके साथ हम सबके मन में था कि कांग्रेस को पुनर्जीवित किया जाए। इस मसले पर पूरे मसविदे के साथ लगभग एक हफ्ते तक गंभीर बातचीत हुई। प्रशांत किशोर की प्रस्तुत की गईं लगभग 570 ‘स्लाइड’ कांग्रेस को पसंद आई। उसे क्रियान्वित करने में कांग्रेस ने जो शर्तें रखीं वह प्रशांत किशोर को मंजूर नहीं थीं। उन्होंने कांग्रेस के साथ काम करने से इनकार कर दिया। वे महज 45 साल के थे। उन्होंने महसूस किया कि जो उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि है, वहां खुद राजनीति की जाए। वे राजनीति में सत्ता के लिए नहीं, बुनियादी परिवर्तन के लिए आए हैं। लालू यादव या नीतीश कुमार के साथ मिल कर सहयोगी दल तीस साल से बिहार में राज कर रहे हैं। बिहार आज भी तीस साल पहले जितना ही बदहाल है। देश का सबसे गरीब व पिछड़ा राज्य है। प्रशांत किशोर ने संकल्प लिया कि मैं बिहार की जनता के लिए काम करूंगा। उन्होंने दो अक्तूबर 2022 को चंपारण से पद-यात्रा शुरू की। बिहार की गरीब व वंचित जनता के लिए उनका संदेश बहुत स्पष्ट और छोटा था कि धर्म और जाति की राजनीति से ऊपर उठिए। इन्हीं दो चीजों से आपका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। अपने बच्चों के रोजगार और उनके जीवन में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए वोट दीजिए। उनका संदेश फैलता चला गया।

आपने धर्म और जाति से ऊपर उठ कर राजनीति करने की बात कही। यह देश और बिहार दोनों के संदर्भ में कह रहे हैं? बिहार में क्या जाति के बिना राजनीति संभव है?पवन कुमार वर्मा: जाति की राजनीति में सिर्फ बिहार को क्यों देखते हैं? आंध्र प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक देखिए, क्या वहां जातिगत समीकरण के तहत राजनीति नहीं हो रही? बिहार में जाति की पकड़ ढीली नहीं हो सकती, या बिहार बदलाव से परे है, हमें इसी सोच को बदलना है। यह सोच ऐतिहासिक संदर्भों में भी गलत है। जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा क्या जाति के संदर्भ में दिया था? 2014 में जब नरेंद्र मोदी आए थे तो क्या उन्हें जाति के आधार पर वोट मिले थे? हम धर्म के खिलाफ नहीं हैं। हम धर्म के दुरुपयोग के खिलाफ राजनीति की बात कर रहे हैं। बिहार में एक चक्र सा बन गया है। राजद के डर से हिंदुओं का भाजपा में जाना और भाजपा के डर से राजद का मुसलिम वोट बैंक बनना। बिहार को इससे ऊपर उठने की जरूरत है।

अभी तो राजनीति का रूप यही है कि विपक्ष को मुसलिम परस्त बता दिया जाता है। आरोप है कि विपक्ष हिंदुओं के मुद्दे पर खामोश रहता है। हिंदू-मुसलिम की राजनीति का जो अखिल भारतीय विस्तार हो चुका है, क्या एक सूबे के चुनाव में इसे चुनौती दी जा सकेगी?पवन कुमार वर्मा: लोगों के दिमाग में हिंदू-मुसलिम की बात राजनेताओं ने डाली है। आम लोगों के जेहन में बुनियादी रूप से तो यही रहता है कि हम अपनी जिंदगी को बेहतर कैसे बनाएं। लोग शिक्षा, रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य प्रणाली चाहते हैं। विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ लोगों को आगाह करना हमारा फर्ज है, हम इसे अच्छी तरह से निभा रहे हैं।

प्रशांत किशोर ने अलग-अलग विचारधारा के दलों के साथ काम किया। सरकारों का हिस्सा रहे। किशोर अब उन लोगों के खिलाफ मैदान में हैं, जिनके‘निर्माण’ का श्रेय उन्हें मिलता रहा है। इसे पेशागत शुचिता के खिलाफ न माना जाए? बात राजनीतिक शुचिता की भी है।पवन कुमार वर्मा: तब प्रशांत किशोर व्यावसायिक रणनीतिकार थे। आज वे स्वयं राजनीति में प्रवेश कर चुके हैं। वे आज भी रणनीति बना रहे हैं, पर बिहार की जनता के लिए। जन सुराज पार्टी तो बाद में बनी, बदलाव की मुहिम पहले शुरू हो चुकी थी।

आम लोगों को वैचारिक रूप से जागरूक कर पाना कितना मुश्किल है? रणनीतिकार से राजनेता की भूमिका में आना कितना चुनौतीपूर्ण है?पवन कुमार वर्मा: यह बहुत मुश्किल था। लगातार दो साल तक 15 से 18 किलोमीटर इस संकल्प के साथ रोज चल रहे थे कि कार या किसी अन्य वाहन में नहीं बैठूंगा। बरसात में भी तंबू में रहे, जो आसान नहीं था।

चर्चा तो उनकी ‘वैनिटी वैन’ की ज्यादा हुई थी।पवन कुमार वर्मा: यह चर्चा तो पार्टी बन जाने के बाद पटना आने पर हुई। उस वक्त वे बिना किसी वाहन के चल रहे थे, तंबू में रहते थे।

भारतीय राजनीति में विकल्प के नाम पर आए तीसरे पक्ष का भी एक खाका खिंच चुका है। तीसरा पक्ष मौजूदा दो पक्षों में जो मजबूत पार्टी होती है उसे फायदा पहुंचाता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने ऐसा ही किया। प्रशांत किशोर पर भी भाजपा को फायदा पहुंचाने के आरोप लग रहे हैं।पवन कुमार वर्मा: यह आरोप तो लगना ही है। नई उभरती शक्ति को खारिज कैसे करेंगे। कोई टीम ‘बी’ बताएगा तो कोई टीम ‘सी’ कहेगा। यहां हम न ‘बी’ बनने वाले हैं और न ‘सी’। हम पूर्ण बहुमत से चुनाव जीतेंगे। मौजूदा शक्तियों का सफाया होगा। हम ‘वोट चोर’ हैं। इतनी ‘चोरी’ करेंगे कि पूर्ण बहुमत से जीतेंगे।

आप जिस संदर्भ में ‘वोट चोर’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे मैं समझ रहा हूं। इतने बड़े विश्वास की वजह?पवन कुमार वर्मा: वजह जनता का विश्वास है।

क्या बिहार में दिल्ली का दोहराव हो सकता है? दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस के बरक्स विकल्प के रूप में उभरी नई पार्टी को सत्ता मिली थी।पवन कुमार वर्मा: मैं अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहा हूं। बिहार लगभग 14 करोड़ लोगों का प्रदेश है और दिल्ली एक शहर है। अरविंद केजरीवाल को आप देख चुके हैं। जन सुराज को लेकर प्रशांत किशोर कई बार दोहरा चुके हैं कि मैं हारूं या जीतूं बिहार के लिए समर्पित रहूंगा। मैं तब तक यहां रहूंगा, जब तक बिहार को देश के दस अग्रणी राज्यों में न ला दूं।

नीतीश कुमार को लेकर राजनीतिक परिदृश्य एकदम बदल सा गया है। क्या वजह है कि नीतीश कुमार में अभी तक जो राजनीतिक संभावना दिख रही थी, अब नहीं दिख रही?पवन कुमार वर्मा: मैं भूटान का राजदूत था। भारतीय विदेश सेवा से इस्तीफा देकर नीतीश कुमार के साथ हुआ था। तब वे अलग नीतीश कुमार थे, भाजपा के पिछलग्गू नहीं थे। प्रशासनिक क्षमता, राजनीतिक शुचिता, व्यक्तिगत ईमानदारी के प्रतीक थे। कोई पारिवारिक हस्तक्षेप नहीं था। वे समाजवादी आंदोलन से निकले सबसे प्रखर नेता थे। उन्होंने बिहार में कुछ हद तक राजद के 15 साल के जंगलराज में बदलाव भी लाया था।

फिर नीतीश कुमार के संदर्भ में गलती कहां से शुरू हुई?पवन कुमार वर्मा: मेरा मानना है, 2015 के बाद से। कुर्सी का जो आकर्षण होता है, नीतीश कुमार उसमें उलझते चले गए। एक बार साख पर सवाल उठ गए तो वे बदलते चले गए। आप देखिए, 2015 के बाद कितनी बार उन्होंने अपने रुख में बदलाव किया। इसके अलावा नीतीश कुमार अस्वस्थ हैं। उनका कैबिनेट पर नियंत्रण नहीं है। इसलिए सत्ता की आड़ में उनकी कैबिनेट के कुछ मंत्री लूट मचाए हुए हैं बिहार में।

नीतीश कुमार की पारदर्शिता की भी साख थी। अब प्रशांत किशोर ने उनके उपमुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। मेरा सवाल राष्ट्रीय संदर्भ में भी है। अगर एक नेता खुद पाक-साफ रहने का दावा करता है, लेकिन उसके आसपास भ्रष्टाचार हो रहा है तो इसकी जिम्मेदारी किस पर बनती है?इसमें साख किसकी खराब होती है?पवन कुमार वर्मा: इस मामले में साख नीतीश कुमार की खराब होती अगर वे इस हालत में होते कि कैबिनेट पर नियंत्रण रख सकें। अब तो वे इस हालत में हैं कि कई बार अपने कैबिनेट के मंत्रियों को पहचानते तक नहीं हैं। मैं बड़े दुख के साथ कह रहा हूं कि वे शारीरिक और मानसिक तौर पर थक चुके हैं। उनका अस्वस्थ होना ही सबसे बड़ा कारण है। वरना वे राजनीतिक शुचिता को मान देने वाले नेता थे। उस दौर में, जब वे पूरी क्षमता से काम करते थे, उन्होंने उन मंत्रियों को निष्कासित किया था, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे।

बिहार में राजनीतिक धारणा बन चुकी थी कि वही पार्टी जीतेगी जिसके साथ नीतीश कुमार रहेंगे। क्या इस बार यह धारणा टूटेगी?पवन कुमार वर्मा: टूटेगी नहीं, यह धारणा टूट चुकी है। मैं आपको जमीनी हकीकत बता रहा हूं कि नीतीश कुमार चंद हफ्तों के मुख्यमंत्री हैं। भाजपा ने नीतीश कुमार की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाए रखा है। भाजपा का आकलन यह है कि उनका कुछ वोट बैंक हमारी तरफ आएगा। जद (एकी) पूरी तरह बिखर चुकी है। भाजपा का आपको यही वक्तव्य दिखेगा कि वह नीतीश कुमार की अगुआई में चुनाव लड़ेगी। आपको यह बयान नहीं दिखेगा कि अगर वे इस हालत में भी चुनाव जीतते हैं तो वही मुख्यमंत्री रहेंगे।

भाजपा के शीर्ष नेताओं के कुछ बयान हैं कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे।पवन कुमार वर्मा: ऐसा कभी नहीं बोला है। सिर्फ यही कहा है कि चुनाव मुख्यमंत्री की अगुआई में लड़ेंगे। ये नहीं कहा है कि चुनाव के बाद वे ही मुख्यमंत्री रहेंगे, क्योंकि वे रह ही नहीं सकते।

बिहार में मुख्यमंत्री के सवाल पर दोनों तरफ चुप्पी है। न तो महागठबंधन कह रहा कि तेजस्वी यादव ही मुख्यमंत्री होंगे, और न भाजपा खुल कर मुख्यमंत्री का चेहरा सामने ला रही है।पवन कुमार वर्मा: राजग और महागठबंधन दोनों जगहों पर सत्ता की बंदरबांट है। महागठबंधन में किसको कितनी सीटें मिलेंगी, इस पर निर्भर है कि कोई कितना जोड़-घटाव कर सकता है। राजग में भी यही हालत है। पूरा जोड़-घटाव कैबिनेट के पद के हिसाब से हो रहा है, न कि जनता के हिसाब से। बिहार में एक ही पार्टी है जन सुराज जो सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। आज तक भाजपा भी 243 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ी है।

भाजपा का आरोप है कि जन सुराज के पास उम्मीदवार ही नहीं हैं।पवन कुमार वर्मा: आप देखिएगा, सबसे पहले उम्मीदवारों की सूची हमारी पार्टी से आएगी।

चुनाव आते ही हर राज्य में रेवड़ियां बंटनी शुरू हो जाती हैं। बिहार में आश्चर्यजनक ढंग से ऐसी कई योजनाओं का एलान हुआ है। आरोप है कि बिहार में हर किसी के खाते में, किसी मद के तहत पैसा पहुंचाया जा रहा है।पवन कुमार वर्मा: यह पूरी तरह अनैतिक है। कहीं न कहीं संविधान बनाने वालों की सोच के विपरीत है। चुनाव आयोग को इसका संज्ञान लेना चाहिए। मैं बहुत दुख के साथ यह शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं कि बिहार में इस समय बेशर्मी से रेवड़ियां बंट रही हैं। यह सब बिना किसी वाजिब आधार के सिर्फ प्रलोभन देने के मकसद से किया जा रहा है। इस समय बिहार पर लगभग चार लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है। अभी मुझे सटीक आंकड़ा याद नहीं, लेकिन इस कर्ज पर प्रतिदिन लगभग 63 करोड़ का ब्याज है। ऐसी हालत में बिहार सरकार जो वादे कर रही है उसे प्रधानमंत्री की जुबान में रेवड़ी ही कहते हैं। एक अहम बात यह है कि बिहार में लोगों का इन रेवड़ियों पर से विश्वास उठ गया है। जनता जानती है कि चुनाव के समय ऐसे अंधाधुंध वादे किए जाते हैं। इस बार बिहार की जनता रेवड़ियों के धोखे में नहीं आएगी।

अभी बिहार में जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसके आधार पर बताइए कि जन सुराज पार्टी का मुख्य मुकाबला राजग से होगा या महागठबंधन से?पवन कुमार वर्मा: राजग सिमट चुका है। हमारा किसी से मुकाबला है तो वह राजद से है। राजद आश्वस्त है कि यादव-मुसलमान बंधुआ मजदूर की तरह उसके वोट बैंक हैं। इस वोट बैंक को काफी मान कर अभी तक चुनावी मुहिम भी शुरू नहीं की है राजद ने।

प्रशांत किशोर के खिलाफ सौ करोड़ की मानहानि का दावा किया गया है।पवन कुमार वर्मा: उनके पास इसके अलावा विकल्प क्या था? ठोस सबूतों के साथ हमने आरोप लगाए। यह दावा सिर्फ सुर्खियां बनाने के लिए किया गया है। अब हम जाएंगे हाई कोर्ट। ये कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।

अगर किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो आपका रुझान किस तरफ होगा?पवन कुमार वर्मा: हम पूर्ण बहुमत से जीतेंगे। न तो चुनाव पूर्व का गठबंधन करेंगे और न बाद का।

मोदी सरकार की मूल गलती का सुधार है GST दरों में कटौती, पी. चिदंबरम का बड़ा सवाल – क्या यह सुधार है या जनता से छलावा?

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के मासिक बुलेटिन में अर्थव्यवस्था की स्थिति पर प्रकाशित होने वाले आलेख का मैं हर महीने बेसब्री से इंतजार करता हूं। इसकी शुरुआत में एक विशेष सूचना होती है, जो मुझे हमेशा मनोरंजक लगती है। इसमें लिखा होता है- ‘डिप्टी गवर्नर डॉ. पूनम गुप्ता के मार्गदर्शन और टिप्पणियों के लिए आभार व्यक्त किया जाता है… इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं और ये भारतीय रिजर्व बैंक के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।’ यह कोई छिपी बात नहीं है कि गवर्नर की स्वीकृति के बिना एक भी शब्द आरबीआइ से बाहर नहीं जा सकता। यहां तक कि किसी डिप्टी गवर्नर का शोध पत्र या भाषण भी गवर्नर द्वारा अनुमोदित किया जाता है।

इस विशेष सूचना को कोई गंभीरता से नहीं लेता और आलेख को व्यापक रूप से पढ़ा एवं उद्धृत किया जाता है। इस आलेख में एक शब्द का कई बार उल्लेख होता है: ‘अनिश्चितता’। सरकार और आरबीआइ की ओर से उठाए गए विभिन्न कदमों के बावजूद, मुद्रास्फीति, कीमतों, रोजगार, वेतन एवं मजदूरी, निवेश, आय, कर और विदेशी व्यापार को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है। यह अनिश्चितता गैर-आर्थिक क्षेत्रों जैसे सार्वजनिक परीक्षाओं, मतदाता सूची एवं चुनाव, कानून एवं उनका कार्यान्वयन तथा विदेश नीति और पड़ोस नीति आदि तक फैल गई है। वास्तव में अनिश्चितता देश की वर्तमान स्थिति को बयां करती है।

मौजूदा अनिश्चित आर्थिक परिस्थितियों के लिए आरबीआइ का जवाब वही चिरपरिचित जुमला है कि ‘अर्थव्यवस्था लचीली है’। सरकार की तरह आरबीआइ भी तिनके का सहारा ले रहा है। हाल में जीएसटी दरों में कटौती भी इसी तरह का प्रयास है। आरबीआइ ने जीएसटी दरों में कटौती को एक ऐतिहासिक कर सुधार बताया है। कर की ऊंची और विविध दरें, जो वास्तव में अनुचित थीं, उनमें कटौती करने में ‘सुधारात्मक’ जैसा क्या है? जीएसटी कानूनों का स्वरूप गलत था, कर ढांचा गलत था, नियम-कानून गलत थे, कर दरें गलत थीं, और जीएसटी कानूनों का क्रियान्वयन भी गलत था। मेरे विचार से त्रुटिपूर्ण विभिन्न कर दरों को सुधारना कोई क्रांतिकारी सुधार नहीं है।

हालांकि, अर्थव्यवस्था की स्थिति जीएसटी दरों में कटौती से उत्साहित है। इससे उपभोक्ताओं के हाथों में लगभग 2,00,000 करोड़ रुपए आने की उम्मीद है। 2025-26 में 357,00,000 करोड़ रुपए के सांकेतिक सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले, ‘अतिरिक्त’ धनराशि 0.56 फीसद है। भारत में वार्षिक खुदरा बाजार का अनुमान 82,00,000 करोड़ रुपए है, और ‘अतिरिक्त’ धनराशि 2.4 फीसद होगी। अतिरिक्त खुदरा व्यय से खपत को बढ़ावा तो मिलेगा, लेकिन अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है।

इसके अलावा, सभी 2,00,000 करोड़ रुपए उपभोग में नहीं जाएंगे। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, घरेलू ऋण सकल घरेलू उत्पाद के 40 फीसद तक बढ़ गया है और घरेलू बचत सकल घरेलू उत्पाद के 18.1 फीसद तक गिर गई है। इसलिए, परिवारों के हाथ में जीएसटी का कुछ ‘पैसा’ कर्ज कम करने में और कुछ बचत बढ़ाने में जाएगा। मैं मानता हूं कि उपभोग व्यय में वृद्धि होगी, लेकिन क्या इससे खपत, उत्पादन और निवेश की प्रक्रिया को कोई महत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन मिलेगा? सरकारी अर्थशास्त्रियों को छोड़कर बाकी सभी ने इस सवाल पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है।

वित्त मंत्रालय और आरबीआइ एक ही राग अलाप रहे हैं। 19 जून, 2025 को वित्त मंत्रालय की सलाहकार समिति के समक्ष प्रस्तुत एक प्रपत्र में पहले तीन पृष्ठों के शीर्षक इस प्रकार हैं:

भारत को निश्चित तौर पर एक खुली और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था बनना होगा। हमारा अनुभव रहा है कि जब एक दरवाजा खुलता है, तो एक खिड़की बंद हो जाती है। एक ‘खुली’ अर्थव्यवस्था को दुनिया के सभी देशों के साथ व्यापार के लिए खुला होना चाहिए। एक ‘प्रतिस्पर्धी’ अर्थव्यवस्था बनने के लिए हमें अधिक द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों को अपनाना होगा। एक प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था को चिप्स, जहाज और बाकी सब कुछ बनाने की चाहत रखने के बजाय केवल वही चीजें (वस्तुएं और सेवाएं) बनानी चाहिए, जिन्हें प्रतिस्पर्धी रूप से बनाया जा सके।

हम दक्षिण एशिया और आसियान से शुरुआत कर सकते हैं। सार्क दुनिया के सबसे कम एकीकृत व्यापारिक समूहों में से एक है। सार्क देशों में विदेशी व्यापार उनके कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार का 5-7 फीसद है। सार्क देशों के साथ भारत का विदेशी व्यापार आठ फीसद से भी कम है। आसियान देशों के साथ यह लगभग 11 फीसद है।

एक और कठिन सुधार है विनियमन को खत्म करना। कानून प्रवर्तन से लेकर कर प्रशासन तक, हर कोई नियम और कानून बनाना पसंद करता है। मंत्रियों को विधेयकों की जानकारी तो दी जाती है, लेकिन नियमों, विनियमों, प्रपत्रों, अधिसूचनाओं और दिशानिर्देशों आदि के बारे में उन्हें अंधेरे में रखा जाता है। इसी तरह जीएसटी जैसा एक बेहतरीन विचार ‘गब्बर सिंह टैक्स’ बन गया। वर्ष 1991-96 में देश में विनियमन-मुक्ति की पहली लहर आने के बाद नियंत्रण और विनियमन व्यवस्था में फिर से घुस आए हैं। और हर दिन नए-नए नियम-कायदे बनाए जा रहे हैं।

सरकार अगर नियमों और विनियमन के अतिरेक को खत्म करने के लिए एक सशक्त प्राधिकरण नियुक्त करती है, तो यह एक बड़ा सुधार होगा। एक बड़े कदम से सरकार प्रधानमंत्री के ‘जीवन की सुगमता’ और ‘व्यापार करने में आसानी’ के लक्ष्यों को काफी हद तक हासिल कर सकेगी। और मैं कह सकता हूं कि इससे विकास दर में तेजी आएगी। जीएसटी दरों में कटौती मूल गलती का सुधार है, और कुछ नहीं। यह किसी उत्सव के लायक नहीं है। न ही यह अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान है।

अमेरिका ने ‘तानाशाह’ चुना, लेकिन जनता में तानाशाही का विरोध करने की हिम्मत बाकी; ट्रंप के बेतुके UN भाषण ने लोकतंत्र पर छेड़ी नई बहस

दुनिया अजीब है। जब नरेंद्र मोदी पहली बार शानदार बहुमत लेकर प्रधानमंत्री बने थे, तो कई उदारवादी विदेशी दोस्तों ने मुझसे पूछा कि क्या भारत के मतदाताओं ने एक ‘हिंदू फासीवादी’ को प्रधानमंत्री बनाया है अशिक्षा और राजनीतिक नासमझी की वजह से। मैंने उनको कई तरह से आश्वस्त किया था उस समय कि मामला न अशिक्षा का है, न सोच का। लोगों ने मोदी को जिताया उम्मीदों की बुनियाद पर। दशकों तक ज्यादातर मतदाताओं ने नेहरू-गांधी परिवार को वोट दिया था, यह सोच कर कि इनके अलावा इस देश को कोई संभाल नहीं पाएगा।

याद कीजिए कि इस परिवार से प्रधानमंत्री चुनना आदत बन गई थी 1947 के बाद और जब सोनिया गांधी ने अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज’ को सुन कर प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था, तो अपनी मर्जी के प्रधानमंत्री बनाए थे तीन बार। फिर जब मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में उन्होंने देखा कि देश के प्रधानमंत्री सोनिया गांधी के आदेशों का पालन करते हैं और खुल कर कहते हैं कि राहुल जब भी अपनी गद्दी लेना चाहेंगे, वे उनको सौंप देंगे तो भारत के लोग थोड़ा मायूस हुए और विकल्प ढूंढ़ने की कोशिश में लग गए। विकल्प उनको दिखा जब नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आने का फैसला किया। मोदी ने इतना ताकतवर विकल्प पेश किया कि मेरे जैसे लाखों ‘खान मार्केट गैंग’ के सदस्यों ने उनको वोट दिया।

ये बातें मुझे पिछले सप्ताह तब याद आईं, जब डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सामने ऐसा भाषण दिया जो अगर किसी दूसरे दर्जे की हिंदी फिल्म में कोई अभिनेता देता, तो लोग उसको मजाक में लेते। इस भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति ने पहले तो संयुक्त राष्ट्र को खूब खरी-खोटी सुनाई और उसका मखौल उड़ाते हुए कहा कि उन्होंने सात युद्धों को रोका है जो असल में संयक्त राष्ट्र का काम होना चाहिए। इनमें एक युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच भी गिनाया।

अपनी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने कहा कि दुनिया में जितनी शांति अब दिख रही है, वह पहले कभी नहीं थी और अमेरिका की अर्थव्यवस्था जितनी तरक्की पिछले आठ महीनों में कर चुकी है, पहले किसी ने कभी नहीं देखी है।

जलवायु संकट और धरती के गर्म होने के कारण मौसम के बदलने को उन्होंने सबसे बड़ा ढकोसला बताया और यूरोप को खबरदार किया कि उसके सारे देश बर्बाद हो रहे हैं अवैध प्रवासियों के कारण। चलते-चलते यह भी कह दिया कि रूस का यूक्रेन से युद्ध चल रहा है चीन और भारत के पैसों से।

ट्रंप ने पहले भी बेतुके भाषण दिए हैं, लेकिन यह वाला उन सबसे ज्यादा बेतुका था। ऊपर से ट्रंप ने जो जंग अमेरिका के मीडिया, विश्वविद्यालयों, लोकतांत्रिक संस्थाओं और अपने विरोधियों के खिलाफ छेड़ी है, उसको दुनिया देख कर तय कर चुकी है कि वे लोकतंत्र की थोड़ी भी इज्जत नहीं करते हैं। दुनिया ने यह भी देखा है कि ट्रंप चुने हुए प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों से ज्यादा सम्मान करते हैं व्लादिमीर पुतिन का।

मैं जब इन चीजों के बारे में अपने अमेरिकी दोस्तों से पूछती हूं, तो वे शर्मिंदा होकर मानते हैं कि उनको कोई अधिकार नहीं रहा है दुनिया के बाकी देशों को लोकतंत्र पर प्रवचन देने का। यानी वही हाल है आज अमेरिका का जो भारत का था 2014 में, जब दुनिया के लोग हम पर अंगुलियां उठाते थे।

दोस्तों, इस बात पर भी गौर करना लाजमी है कि ट्रंप की मनमानी के खिलाफ अमेरिका में मशहूर अभिनेता और पत्रकार ऊंची आवाज उठा रहे हैं शुरू से। जब पिछले सप्ताह ट्रंप के दबाव में आकर एबीसी चैनल ने लोकप्रिय टीवी शख्सियत जिमी किमेल का कार्यक्रम बंद कर दिया था कोई बहाना ढूंढ़ कर, तो इतना हल्ला मचाया लोगों ने कि उनका शो वापस लाना पड़ा। ट्रंप ने विरोध जताया, लेकिन कुछ कर नहीं पाए।

कुछ महीने पहले मैं जब अमेरिका में थी, तो ट्रंप ने एक सैनिक परेड शुरू करवाई थी वाशिंगटन में, यह दिखाने के लिए कि अमेरिका के पास कितने आधुनिक और शक्तिशाली हथियार हैं। इस तरह की परेड अमेरिका की परंपरा में नहीं रही है कभी। लोगों को लगा कि ट्रंप अपने आपको शहंशाह समझने लग गए हैं। इसके खिलाफ अमेरिका के तकरीबन हर बड़े शहर में विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें लोगों के हाथों में बड़े-बड़े पोस्टर थे, जिन पर लिखा था ‘नो किंग्स’ यानी महाराजा नहीं चाहिए।

एक ऐसे प्रदर्शन को मैंने खुद देखा और बहुत प्रभावित हुई इसलिए कि अपने देश में इस तरह के प्रदर्शन सिर्फ तब दिखते हैं, जब कोई राजनीतिक दल उनकी अगुआई करता है। आम लोग नहीं निकलते, क्योंकि वे अपने शासकों से डरते हैं चाहे प्रधानमंत्री किसी भी दल का हो।

मुझे सबसे ज्यादा मायूसी होती है अपने निजी टीवी चैनलों का हाल देख कर। इतनी चापलूसी होती है प्रधानमंत्री की इन पर कि दूरदर्शन भी पीछे छूट जाता है इन कथित स्वतंत्र निजी चैनलों के मुकाबले। माना कि आज के दौर में ज्यादा हिम्मत दिखाने वाले पत्रकारों को जेल में डाल देने या देश से निकाल देने की बातें की जाती हैं, लेकिन लोकतंत्र के लिए हम नहीं लड़ेंगे, तो कौन लड़ेगा जनता की तरफ से।

मोदी से पहले जब भी कोई गलत कानून बनता था या सरकार कोई गलत कदम उठाती थी, तो हम सब निकलते थे सड़कों पर विरोध जताने। मैंने खुद इंडिया गेट पर कई बार विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है खासकर तब जब मीडिया पर पाबंदियां लगाने की कोशिश हुईं। इसलिए माना कि अमेरिकी मतदाताओं ने एक तानाशाह को राष्ट्रपति बनाया है, लेकिन उम्मीद कम से कम इसमें है कि लोगों में तानाशाही का विरोध करने की हिम्मत है।

विज्ञान और तकनीकी में भारतीय लड़कियों की ताकत, अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी को छोड़ी पीछे; खुद पर भरोसा और नई सोच के साथ बदल रही हैं अपनी जिंदगी का रास्ता

सबलता आत्मशक्ति से जुड़ा पक्ष है। अंतर्मन का यह सामर्थ्य संसाधनों की हर कमी पर भारी पड़ता है। हर मोर्चे पर संघर्ष करने की ऊर्जा देता है। विचारणीय है कि यही आत्मिक ऊर्जा जुटाकर हमारे देश की स्त्रियां सबल बनी हैं। अपने लक्ष्यों तक पहुंची हैं। जीवन की दशा पलटने का काम किया है। हर मोर्चे पर नई दिशा चुनने का जीवट रखा है। भारतीय महिलाओं ने घर-आंगन की अनगिनत समस्याओं के बीच भी अपने मन का मौसम बदलने के प्रयास किए हैं। समाज और परिवार में ही नहीं, देश-दुनिया तक, अपने अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध करने में सफलता हासिल की है। आधी आबादी ने बार-बार अपनी कर्मठता और आत्मशक्ति को सिद्ध किया है।

समस्याओं के आगे नत होने के बजाय संघर्ष की राह चुनी है। यही कारण है कि अपनी भीतरी शक्तियों को जागृत कर उन्नति का आकाश छूने के अनगिनत उदाहरण आज गांवों से लेकर महानगरों तक में मौजूद हैं। सामाजिक बंधनों और पारिवारिक मोर्चे पर मौजूद अड़चनों के बावजूद भारतीय महिलाओं ने हर क्षेत्र में रेखांकित करने योग्य उपस्थिति दर्ज कराई है।

सुखद है कि समाज ने भी स्त्री शक्ति के सामर्थ्य को स्वीकारना सीख लिया है। आधी आबादी के सशक्तीकरण और समानता के परिवेश की यह नीति भारत के संविधान में भी समाहित है। अनुच्छेद 14 हर मोर्चे पर महिलाओं के लिए समानता के अधिकार को सुनिश्चित करता है। व्यावहारिक रूप से भी देखा जाए तो समानता का धरातल प्रगति के पथ पर बढ़ते कदमों को मजबूती देता है।

दरअसल, मातृ शक्ति की उपासना वाले भारतीय समाज में स्त्रियां सदा से ही शक्तिस्वरूपा मानी गई हैं। रूढ़िवादी सोच और स्वार्थ साधने के लिए बनाए गए बंधनों ने महिलाओं की कठिनाइयां बढ़ाई हैं। बावजूद इसके स्त्रियों ने समय के साथ अपने जीवन को साधा है। आज पारिवारिक ही नहीं, सामुदायिक स्तर पर भी सशक्त महिलाओं के बढ़ते आंकड़े आधी आबादी के सशक्त अस्तित्व और बढ़ते सामर्थ्य की पुष्टि करते हैं। स्त्री मन की जिजीविषा ही है कि दूरदराज के क्षेत्रों में महिलाएं उद्यम चला रही हैं, तो कहीं सामाजिक कल्याण के कार्यों में जुटी हैं। भारतीय स्त्रियों के तेजस्वी स्वरूप और कर्मशील व्यक्तित्व की नई छवि वैश्विक स्तर पर भी ध्यातव्य बन गई है।

आधी आबादी का हर मोर्चे पर उपस्थिति दर्ज कराना उनके सबल होने का ही प्रतीक है। शिक्षा, व्यवसाय, अंतरिक्ष अभियान, खेल, सैन्य बल या घरेलू मोर्चा। दुनियाभर में दिखती पारिवारिक विखंडन की परिस्थितियों के बीच हमारे देश की महिलाएं आज भी जीवन का आधार कहे जाने वाले परिवार को थामना नहीं भूली हैं। वे हर विपरीत परिस्थिति में अपनों की शक्ति बन रही हैं। समग्र समाज में सहयोग और संबल के भाव को पोस रही हैं।

आज की महिलाएं चेतनासंपन्न, सजग और आत्मविश्वासी हैं। अपने अस्तित्व और अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। समाज, परिवार और परिवेश में मौजूद अच्छे-बुरे व्यवहार को लेकर स्पष्ट सधी समझ भी रखती हैं। मुखर होने के अर्थ और आवश्यकता को बखूबी जानती हैं। उनका चेतनामय अस्तित्व हर परिस्थिति में प्रश्न करने का सामर्थ्य रखता है। यह सजगता महिलाओं को बहुत से रूढ़िवादी बंधनों से मुक्त कर स्वविवेक रूपी अस्त्र का प्रयोग करने की राह सुझा रही है। आत्मनिर्भर बनने का हौसला दे रही है। आत्मशक्ति और जिजीविषा के धरातल पर अपने जाग्रत अस्तित्व को समाज के सामने रख रही हैं। उनका शक्तिस्वरूपा बन मानवीय भावों को सहेजते हुए आगे बढ़ना व्यावहारिक रूप से भी बेहतरी की नई परिभाषा गढ़ने का उदाहरण है।

यह उन्नति के आकाश में आत्मशक्ति की उड़ान का हौसला ही है कि हमारे देश में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित में लड़कियों का नामांकन अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे विकसित देशों से भी अधिक है। सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर परंपरागत परिवेश वाले भारतीय समाज में आर्थिक सुविधाओं और पारिवारिक सहयोग तक, महिलाओं को कुछ भी सहजता से नहीं मिल पाता।

आत्मविश्वासी व्यक्तित्व सबल होने की प्रमुख शर्त होती है। मुखरता विचारों की दृढ़ता का प्रतीक होती है। चेतना का भाव मनोभावों के जागरण का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में भारतीय स्त्रियों का परंपरागत रंगों को सहेजते हुए मन-जीवन के मोर्चे पर हर बुराई का प्रतिकार कर प्रगति के मार्ग पर चलना रेखांकित करने योग्य है। आर्थिक आत्मनिर्भरता से लेकर मनोभावों के प्रबंधन तक, स्त्रियां अपने अस्तित्व को गढ़ रही हैं। गौरतलब है कि 2017-18 में देश में महिला श्रमशक्ति की भागीदारी बाईस फीसद थी।

महिलाएं पारंपरिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए नवाचार संचालित कार्यबल का हिस्सा बन रही हैं। 2021-22 सत्र में उच्च शिक्षा में महिला नामांकन कुल नामांकन का लगभग पचास फीसद रहा। दूरदराज के गांवों में महिलाएं ड्रोन उड़ाने का प्रशिक्षण ले रहीं हैं तो महानगरों में तकनीकी दुनिया में उच्च पदों तक अपनी पहुंच बना चुकी हैं। हस्तकला और स्वदेशी सामान बनाने वाली महिलाएं देश और विदेश के श्रम बाजार तक पहुंच बना चुकी हैं।

दुनिया की सबसे युवा जनसंख्या वाले हमारे देश का वर्ष 2030 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य आधी आबादी की सक्रिय भागीदारी के बिना संभव नहीं। इसके लिए कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने और लैंगिक अंतर को पाटने के प्रयास आवश्यक हैं। ज्ञात हो कि 2023 में देश के कार्यबल में स्त्रियों की भागीदारी बत्तीस फीसद से अधिक थी।

यह हिस्सेदारी पाने तक की यात्रा बहुत संघर्षों से भरी रही है। बंधनों और बाधाओं के बावजूद अपनी ऊर्जा और क्षमता को सार्थक दिशा देते हुए स्त्रियां आगे आई हैं। ऐसे में सामाजिक सोच, पारिवारिक परिवेश और सरकारी नीतियों की सकारात्मक दिशा महिलाओं को हर पक्ष पर मुख्यधारा में ला सकते हैं, आधी आबादी के प्रयासों को और गति दे सकते हैं। मानवीय संवेदना और यथार्थवादी बदलाव के जरिए मातृशक्ति को मान देने से एक सुंदर परिवेश बन सकता है।

झटकों का सिलसिला: लेह-लद्दाख से बिहार तक, ‘जेन-जी’ हिंसा, H1B मुद्दा और चुनावी हलचल ने उड़ा दी मीडिया और जनता की नींद

एक चैनल ने दिल को समझाया कि ‘जेन-जी’ का कोई ‘लेवल’ नहीं, लेकिन लेह-लद्दाख के एक व्यक्ति की पुकार सुन कर युवा आए। ‘जेन-जी’ का हिंसक प्रदर्शन… पत्थरबाजी और आगजनी… गोली चली… चार की मौत… कर्फ्यू… फिर गिरफ्तारियां। चैनलों में आ जुटे एकवचन, बहुवचन, कटुवचन, तिक्तवचन… अपनी-अपनी रोटी सेंकने। एक वचन: सरकार क्या सो रही थी… सरकार जिम्मेदार..! दूसरा वचन: सब कुछ असली मुद्दों से भटकाने के लिए कराया गया! तीसरा वचन: ‘जेन-जी’ को उकसाया गया… और युवा आंदोलन करने लगे! चौथा वचन: ये तो नमूना है, असली तो आना है! पांचवां वचन: ‘विदेशी फाउंडेशनों’ से इतने-इतने डालर आए… इतना ‘विदेशी धन’ आया और उसने अपना गुल खिलाया..!

सवाल उठा कि इसके पीछे किसका हाथ है, तो जवाब आए कि युवा बेरोजगार पूर्ण राज्य का दर्जा मांगते हैं… सीमावर्ती इलाके पर चीन की नजर है… इतनी जल्दी कैसे दे सरकार राज्य का दर्जा! यों इलाके के विकास के लिए बहुत-सी इमदाद दी गई है! एक चैनल कहिन कि वे भारत में अराजकता फैलाना चाहते हैं… एक चैनल बताए कि नेपाल का सीधे नजर आया तार, कई नेपाली गिरफ्तार! एक कहिन कि हमारे नेता ने तो पहले ही संविधान बचाने के लिए ‘जेन-जी’ का आह्वान कर दिया था! फिर एक कहिन कि हैदराबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव ने जवाब दे दिया।

टीवी बहसों में रोज का सर्कस: AI वीडियो से वोट विवाद तक, राजनीति में हर दिन ड्रामा और हमला; पढ़ें सुधीश पचौरी का नजरिया

फिर आया अपने ‘अंकल जी’ का एक बड़ा झटका कि अब से एच1बी वीजा की फीस एक लाख डालर! और अमेरिका के सपने देखने वाला अपना मध्य वर्ग देर तक निराशा के झटके में झूलता रहा। दृश्य भी विचित्र… अंकल कहें कुछ, सचिव कहें कुछ..!

इसे देख कर ‘सिलिकान वैली’ की कुछ शीर्ष तकनीक कंपनियों के भारत-मूल के मालिकों या निदेशकों ने प्रार्थना की कि ऐसे जुल्म न करें महाराज, नहीं तो आपके अमेरिका को ‘फिर से महान’ बनाने वाली ये कंपनियां ही बैठ जाएंगी… याद रखें ‘प्रभु जी! तुम वीजा हम घीसा! तुम्हारे नए शुल्कों ने हमको धर-धर करके पीसा!’

कहते हैं कि तब कहीं जाकर ‘अंकल जी’ पसीजे और कहा कि जिनके पास पहले से ‘एच1बी वीजा’ है, उनको ये फीस नहीं देनी। सिर्फ नए लोगों को देनी होगी। तब जाकर मध्य वर्ग की सांस में सांस आई। इसे कहते हैं कि पहले झटका, फिर कुछ देर झटके को झटका, फिर अंत में सबने सटका..!अब बिहार का दृश्य: पहले आई एक ‘पारिवारिक कलह कथा’… निस्वार्थ बलिदान की कथा… फिर आई जयंचद कथा… फिर आया सवाल इस परिवार का ‘जयचंद कौन’!

राजनीति, अफवाहें और ताजे किस्से; सुधीश पचौरी के शब्दों में पढ़ें हफ्तेभर का देश-दुनिया का हाल

फिर आया एक शाम प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम लघु संबोधन! घोषित नई ‘जीएसटी’ के सुधारों की घोषणा, यानी उत्सवी मौसम में देश की जनता को ढेर सारी बचत की सौगात! सभी चीजें सस्ती… रोजमर्रा के खानपान की चीजों पर जीएसटी शून्य, सिर्फ दो ‘श्रेणी’- एक पांच फीसद वाली और दूसरी अठारह फीसद वाली! भारत में बनी चीजों के उपयोग का आह्वान… आत्मनिर्भर बनने का संदेश!

विपक्ष फिर भी नाखुश… कि ये तो हमारा ही विचार था… कि अगर करना था तो पहले क्यों नहीं किया… कि ये बढ़े शुल्कों के कारण किया… कि यह बिहार के चुनावों के लिए किया गया..! और फिर आई बिहार में आयोजित एक बड़े विपक्षी दल की बड़ी बैठक और बिहार चुनाव के लिए अपेक्षित तैयारियों और महागठबंधन के दलों के सीट बंटवारे की खबरें..! यहीं कहीं से निकली एक खबर, जो कहती थी कि यह है आजादी की दूसरी लड़ाई..! एक चर्चक बोला कि भइए इनमें से किसने लड़ी है आजादी की लडाई?

धमकीबाजी, अंकल सैम और नेताजी… सियासी अखाड़े में तकरार से लेकर तूफान तक; सुधीश पचौरी से जानें हफ्ते की हलचल

सच! इन दिनों निंदकों की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है..! अरे भाई इन्होंने न लड़ी, इनके पुरखों ने तो लड़ी..! इस बीच एक नया शब्द आया ‘नेपोकिड (भाई-भतीजे), लेकिन इन दिनों तो ‘नेपोकिड’ होना भी गर्व का विषय बताया जाने लगा है कि ‘नेपोकिड’ भी चुनकर आते हैं..!

इसके बाद आए ‘गरबा उत्सव’ के नए ‘प्रवेश नियम’ कि हिंदुओं का त्योहार… केवल हिंदुओं को इजाजत है… जो तिलक लगाकर आएं… पहचान पत्र… आधार कार्ड आदि साथ लाएं…! इस पर भी हुई कुछ देर हाय हाय..!

फिर उत्तर प्रदेश की सरकार के एक आदेश ने चौंकाया कि थानों में आरोपितों के नाम के साथ जाति नहीं लिखी जाएगी और यह भी कि जाति के नाम से बुलाई सार्वजनिक रैलियों को अनुमति नहीं होगी..! कैसे दिन आ गए हैं कि इन दिनों हर चीज ‘हिंदू मुसलमान’ हुई जाती है!

जनसत्ता सरोकार: अपना देश पराए लोग, इंग्लैंड से लेकर कनाडा तक प्रवासियों के खिलाफ संगठित होता दक्षिणपंथ

हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों के लोकतंत्र से लेकर एशिया के कुछ हिस्सों तक, दुनिया भर में आव्रजन विरोधी बयानबाजी और आंदोलनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। ये आंदोलन अब हाशिये पर नहीं बल्कि मुख्यधारा में हैं, जिन्हें राजनीतिक नेताओं, राष्ट्रवादी दलों और यहां तक कि एलन मस्क जैसे वैश्विक प्रभावशाली लोगों ने भी बढ़ावा दिया है। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नजदीकी दक्षिणपंथी कर्क की हत्या ने आग में घी का काम किया, जिसका परिणाम इंग्लैंड में दिखाई दिया। वहां एक से डेढ़ लाख लोग आव्रजन नीतियों और अप्रवासियों के खिलाफ लंदन में सड़क पर उतर आए। ऐसे में प्रभावशाली कारोबारी एलन मस्क के बयान जिसमें उन्होंने शरण नीतियों को देशद्रोही बताया हो या आस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक रैलियों का समर्थन किया हो, सुर्खियां बटोरने और विरोध प्रदर्शनों को हवा देने के लिए काफी रहे हैं। कथित राष्ट्रवादी दल अपने यहां के नागरिकों को खास कर युवा पीढ़ी को पहचान के संकट को लेकर आगाह कर रहे हैं। वैश्विकवाद बीसवीं सदी का मूल्य बना था। इक्कीसवीं सदी में इसी वैश्विकवाद को एक खतरे की तरह पेश किया जा रहा है। वैश्वीकरण के मूल्यों को खारिज कर अपना देस पराए लोग का नारा लोकप्रिय हो रहा है। दुनिया के कई हिस्सों में देसी अभिमान के नवजागरण काल पर सरोकार।

हाल के वर्षों में अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया और यूरोप में आतंरिक संघर्ष शब्द का इस्तेमाल ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में नहीं, बल्कि अपने ही समाजों के लिए एक गंभीर चेतावनी के रूप में किया जाने लगा है। जो कभी एक सीमांत चर्चा थी, वह ध्रुवीकरण, प्रवासी-विरोधी भावना और जड़ जमाए हुए उदारवादी अभिजात वर्ग और विद्रोही लोकलुभावन आंदोलनों के बीच मूल्यों के तीखे टकराव से प्रेरित होकर मुख्यधारा में आ गई है।इस बहस की गंभीरता हाल की घटनाओं से साफ जाहिर होती है। पिछले हफ्ते यूटा में एक विश्वविद्यालय की रैली में अमेरिकी रूढ़िवादी कार्यकर्ता चार्ली किर्क की हत्या ने अमेरिकी राजनीति में तहलका मचा दिया। ट्रंप प्रशासन और उसके दक्षिणपंथी समर्थकों ने तुरंत इस हत्या को कट्टरपंथी अमेरिकी वामपंथियों द्वारा युद्ध की कार्रवाई करार दिया।

लंदन में उग्र राष्ट्रवादी टामी राबिंसन द्वारा आयोजित एक विशाल कथित देशभक्त रैली में एक लाख से डेढ़ लाख लोगों ने बढ़ते प्रवासी-विरोधी गुस्से और नफरत फैलाने वाली भाषा पर सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश को उजागर किया। चार्ली किर्क का नाम इन भाषणों में गूंजता रहा। अमेरिका में एमएजीए आंदोलन और यूनाइटेड किंगडम को ‘टेक बैक’ चाहने वाले ब्रिटिश राष्ट्रवाद के उदय के बीच वैचारिक हस्तांतरण दिखाई दे रहा है। यह नया चलन सिर्फ एंग्लो-सैक्सन दुनिया तक सीमित नहीं है। पूरे यूरोप में अप्रवासी विरोधी और लोकलुभावन दल जैसे जर्मनी में एएफडी और फ्रांस की नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का उदय हो रहा है। रैली दिखाती है कि ये भावनाएं पूरे पश्चिम में जोर पकड़ रही हैं। ये रुझान मिलकर यह सवाल उठाते हैं कि क्या युद्ध के बाद की पश्चिमी राजनीति अब भी अपने आंतरिक संघर्षों को नियंत्रित कर पाएगी।

जनसत्ता सरोकार: वैश्विक ‘सक्रिय क्लब’, मार्शल आर्ट से नव-नाजी विचारधारा फैलाने वाले युवा, अमेरिका-यूरोप से कनाडा तक बढ़ते खतरनाक आंदोलन

पश्चिम में सामाजिक समूहों के बीच बड़े पैमाने पर सशस्त्र संघर्ष भले ही अभी आसन्न न हों। लेकिन बढ़ते ध्रुवीकरण के बीच की बयानबाजी युद्ध की बातों जैसी होती जा रही है। ऐसे आंदोलन के गुरु स्टीव बैनन, अमेरिकी राजनीति को युद्ध के रूप में देखते हैं। वे उदारवादी अभिजात वर्ग और वैश्विकवादियों के खिलाफ हथियार उठाने का आह्वान करते हैं। इस तरह की भाषा किर्क की हत्या के बाद और तेज हो गई।

ट्रंप के एक अन्य वरिष्ठ सहयोगी, स्टीफन मिलर, संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर एक ‘आतंकवादी आंदोलन’ की चेतावनी देते हैं, जो विदेशी तत्त्वों की ओर से नहीं, बल्कि राजनीतिक विरोधियों की ओर से है। वे डेमोक्रेट पर दक्षिणपंथियों के खिलाफ आतंक फैलाने का आरोप लगाते हैं। भड़काऊ बयानबाजी से परे, पश्चिम में आज के गृह युद्ध तीन मोर्चे पर परस्पर विरोधी विचारधाराओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं। ये हैं-मूल्य, आव्रजन और विदेश नीति।आप्रवासन गृहयुद्धों की अग्रिम पंक्ति में है।

उदारवादी अपेक्षाकृत खुली सीमाओं के पक्षधर हैं, जो सस्ते श्रम में पूंजीवादी हितों की पूर्ति भी करते हैं। लोकलुभावनवादियों का तर्क है कि बड़े पैमाने पर खासकर अवैध-प्रवासन सार्वजनिक सेवाओं पर दबाव डालता है, वेतन कम करता है और सामाजिक एकता को नष्ट करता है। ‘ग्रेट रिप्लेसमेंट’ सिद्धांत, जो कभी हाशिये पर था, अब मुख्यधारा में आ गया है। यह आरोप लगाता है कि अभिजात वर्ग अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए जानबूझकर स्थानीय आबादी की जगह विदेशियों को ला रहा है। आप्रवासन के खिलाफ यह शिकायत, विनिर्माण क्षेत्र की नौकरियों को विदेशों में ‘आउटसोर्स’ करने और देश में श्रम को ‘इनसोर्स’ करने की उदारवादी नीतियों के प्रति आक्रोश से भी जुड़ी है। इन नीतियों को उलटना लोकलुभावन एजंडे के केंद्र में है।

जनसत्ता सरोकार: यूरोप और अमेरिका में चरम दक्षिणपंथ का उभार, सीमा बंद करने और अप्रवास विरोधी नारे बढ़ाए राजनीतिक ध्रुवीकरण

तीसरा मोर्चा विदेश नीति है। उदारवादी वैश्वीकरण, बहुपक्षवाद, अंतरराष्ट्रीय कानून और लोकतंत्र व मानवाधिकारों के संवर्धन का समर्थन करते हैं। ये मानते हैं कि यूरोपीय संघ और नाटो जैसी संस्थाएं अस्थिरता के विरुद्ध आवश्यक सुरक्षा कवच हैं। लोकलुभावनवादी इस उदार अंतरराष्ट्रीयतावाद को अस्वीकार करते हैं। ‘अमेरिका फर्स्ट’ या ‘यूनाइट द किंगडम’ जैसे नारों के माध्यम से वे विदेशी उलझनों और गठबंधनों का विरोध करते हैं। दावा करते हैं कि वे नागरिकों के बजाय अंतरराष्ट्रीय अभिजात वर्ग की सेवा करते हैं।

यूएसएआइडी, एनपीआर और वायस आफ अमेरिका जैसी संस्थाओं को खत्म करने का ट्रंप प्रशासन का फैसला इस आरोप पर आधारित है कि करदाताओं के पैसे से चलने वाली ये संस्थाएं विदेशों में उदारवादी मूल्यों का प्रसार करती हैं। एमएजीए के नेता गैर-पश्चिमी सरकारों से भी ज्यादा जोरदार तरीके से जार्ज सोरोस द्वारा संचालित ‘एनजीओ-औद्योगिक परिसर’ की निंदा करते हैं।

चाहे ये तनाव व्यापक हिंसा में बदल जाएं या नहीं, साझा मूल्यों और संस्थाओं पर आधारित पारंपरिक उदार-लोकतांत्रिक आम सहमति लोकलुभावन असंतोष के कारण टूट रही है। पश्चिम के समाजों की स्थिरता अब सुनिश्चित नहीं है। क्या पश्चिमी उदार लोकतंत्र अपने भीतर बढ़ती खाई को पाट सकते हैं?

पश्चिम में, खासकर एंग्लो-सैक्सन दुनिया में, अपने विशाल प्रवासी समुदायों के साथ, भारत को इस नए आयाम पर बारीकी से ध्यान देने की जरूरत है। 1960 के दशक से ही भारतीय अभिजात वर्ग को पश्चिम की खुली सीमा नीतियों से काफी फायदा हुआ है, जिससे बड़ी संख्या में भारतीय पेशेवर और कुशल कामगार विदेशों में रोजी-रोटी कमा पाए हैं। कुछ लोकलुभावनवादी नाराजगी पहले ही भारत और उसके प्रवासी समुदायों के खिलाफ हो चुकी है। अभी इसके और भी बढ़ने की आशंका है।

लोकलुभावन वैश्वीकरण-विरोधी नीतियां और उनके प्रति उदार समायोजन, भारत को भी नुकसान पहुंचाएगी। देर से वैश्वीकरण करने वाले देश के रूप में, भारत (और दक्षिण एशिया) निर्यात-आधारित विकास के उन अवसरों से चूक गया, जिनका चीन सहित अन्य एशियाई देशों ने 20वीं सदी में दोहन किया था। आज, जब पश्चिम वैश्वीकरण से पीछे हट रहा है, भारत के सामने और भी कठिन विकल्प हैं। जो बाइडेन के कार्यकाल के दौरान, भारतीय अभिजात वर्ग लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर पश्चिमी उदारवादियों के साथ विरोधाभासों को लेकर परेशान था। यही भारतीय प्रतिष्ठान के ट्रंप के प्रति उत्साह का एक कारण था। लेकिन अब भारत इस वास्तविकता को समझ रहा है कि आव्रजन और आर्थिक वैश्वीकरण के मुद्दे पर पश्चिमी लोकलुभावनवादियों के साथ उसके विरोधाभास और भी गंभीर हैं।

मानवाधिकारों पर उदारवादियों की तीखी प्रतिक्रिया शायद ही कभी उनके तीखेपन के बराबर रही हो, लेकिन लोकलुभावनवादी कम समय में ही वास्तविक नुकसान पहुंचा सकते हैं।आज पश्चिम के राष्ट्रों के बीच और उनके भीतर भी विभाजन है। इसलिए, भारत के राजनीतिक वर्ग और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान को पश्चिम के विभिन्न राजनीतिक ढांचों के साथ और अधिक निकटता से व सूक्ष्म स्तर पर जुड़ना होगा। खास कर कूटनीतिक स्तर पर अपनी गतिविधि तेज करनी होगी।

जनसत्ता सरोकार: वैश्विक ‘सक्रिय क्लब’, मार्शल आर्ट से नव-नाजी विचारधारा फैलाने वाले युवा, अमेरिका-यूरोप से कनाडा तक बढ़ते खतरनाक आंदोलन

अमेरिका और विदेशों में ऐसे ‘सक्रिय क्लब’ बढ़ रहे हैं जो ‘मार्शल आर्ट’ का इस्तेमाल करके दक्षिणपंथी, फासीवादी विचारधाराओं का प्रचार करते हैं। जून में कनाडा के लंदन में सिटी हाल के सामने एक टेलीग्राम वीडियो में काले मास्क और धूप का चश्मा पहने एक दर्जन से अधिक लोग दिखाई दिए थे। ये किसी भी खुले स्रोत जांचकर्ता को आसानी से उनकी पहचान करने से रोक रहे थे।

ये लोग ‘अब सामूहिक निर्वासन’ का नारा एक स्वर में लगा रहे थे। उनके हाथों में नारे लिखे हुए थे, ‘इजराइल का खून नहीं’। जबकि नकाबपोश पुरुषों द्वारा नारे लगाते हुए इस प्रकार का दृश्य अमेरिका में अपेक्षाकृत सामान्य घटना है। कनाडा में हुई यह घटना एक उभरते वैश्विक आंदोलन के अंधेरे पक्ष को दर्शाती है। सक्रिय ‘नव-नाजी  क्लब’ अमेरिका में जन्मे ‘नवफासीवादी फाइट क्लब’, तेजी से सीमाओं के पार फैल रहे हैं।

लंदन, ओंटारियो प्रांत में एक जंग खाए बेल्ट में एक बड़ा कनाडाई शहर है, जिसका कू क्लक्स क्लान के साथ एक लंबा इतिहास रहा है। यह संदर्भ 1920 के दशक और 2021 में एक पाकिस्तानी-कनाडाई परिवार की नस्लवादी हत्या का है। एक सक्रिय क्लब का आगमन, जिसने खुद को टोरंटो (देश का सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र) जैसे अन्य आस-पास के शहरों और कस्बों में भी दिखाया है, अपेक्षाकृत नया विकास है। ‘हमारे शहर हैमिल्टन में आपका स्वागत है’। उसी कनाडाई सक्रिय क्लब की एक टेलीग्राम पोस्ट में लिखा था, जिसका प्रतीक निशान ओंटारियो के सबसे बड़े शहरों में से एक के साइन बोर्ड के बगल में एक स्टिकर पर लगा था-‘लोक-परिवार-भविष्य!’

जनसत्ता सरोकार: अपना देश पराए लोग, इंग्लैंड से लेकर कनाडा तक प्रवासियों के खिलाफ संगठित होता दक्षिणपंथ

दुनिया भर में, कनाडा ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जहां इन क्लबों का चलन बढ़ रहा है। ये फिटनेस और मिश्रित मार्शल आर्ट समूह हैं जो स्थानीय जिम और पार्क में संचालित होते हैं और नव-नाजी और फासीवादी विचारधाराओं का समर्थन करते हैं। अमेरिका के कई राज्यों में पहले से ही फैल रहे ये सक्रिय क्लब खुले तौर पर मर्दवाद के प्रति जुनून से ऐतिहासिक प्रेरणा लेते हैं। यूरोपीय फुटबाल की गुंडागर्दी से ये आधुनिक प्रेरणा लेते हैं।

ग्लोबल प्रोजेक्ट अगेंस्ट हेट एंड एक्सट्रीमिज्म (जीपीएएचई) द्वारा प्रकाशित हालिया शोध से पता चला है कि 2023 से ये क्लब स्वीडन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड, यूके, फिनलैंड में नए सिरे से उभर रहे हैं। पहली बार लैटिन अमेरिका में चिली और कोलंबिया में दो अध्याय खुल रहे हैं। जीपीएएचई के शोध के अनुसार, अब 27 देशों में इसकी शाखाएं हैं, जिनमें नई युवा शाखाएं हैं। ये हिटलर युवा शैली के क्लबों के समान हैं जो अमेरिका और विदेशों में फैल रही हैं। ये तेजी से पश्चिमी देशों में फैल रही हैं और युवा पुरुषों को नस्ल युद्ध को बढ़ावा देने वाली जहरीली, अति-दक्षिणपंथी विचारधाराओं में भर्ती कर रही हैं।

जीपीएएचई के संस्थापक हेइडी बेरिच ने कहा कि एक्टिव क्लब माडल को राब रुंडो द्वारा डिजाइन किया गया था। उन्होंने एक कुख्यात नव-नाजी और न्यूयार्कर का जिक्र किया, जिसे 2024 में कैलिफोर्निया में 2017 की राजनीतिक रैलियों में दंगा करने की साजिश के लिए दोषी ठहराया गया। उस समय के आसपास, रुंडो ऐसे अभियान का नेता भी था जो एक नव-नाजी गिरोह था, जिसके चार सदस्यों पर 2017 में वर्जीनिया के चार्लोट्सविले में ‘यूनाइट द राइट रैली’ में उनकी भूमिका के लिए आरोप लगाए गए थे, लेकिन बाद में उन्होंने फासीवादी विचारधारा और भर्ती के नए केंद्र के रूप में अनुयायियों के बीच सक्रिय क्लबों के विचार को फैलाने का काम शुरू कर दिया।

बेरिच ने कहा कि जहां तक हम जानते हैं, रुंडो व्यवस्थित तरीके से आंदोलन के अध्यायों से सीधे तौर पर जुड़े नहीं हैं, लेकिन इस तरह के अध्याय उनसे और उनकी विचारधारा से प्रेरित हैं। बेइरिच ने बताया कि हालांकि रुंडो का इन समूहों में हाथ होने की संभावना नहीं है, लेकिन यह उनके सक्रिय क्लबों के स्वायत्त और स्थानीय होने के मूल दृष्टिकोण से मेल खाता है। लेकिन श्वेत लोगों की बड़ी आबादी वाले देशों में सक्रिय क्लबों की कई शाखाएं जिनमें से कुछ ने हाल के वर्षों में खुले तौर पर नस्लवाद और देशभक्ति की ओर रुख किया है। एक-दूसरे को वैश्विक संघर्ष के रूप में प्रचारित करती हैं और टेलीग्राम एप पर खातों के एक नेटवर्क से जुड़ी हुई हैं। विशेष रूप से खातों का एक समूह, जो आनलाइन नव-नाजियों के बीच एक प्रकार से रुझान निमार्ता बन गया है, ने दुनिया भर में कई स्थानीय सक्रिय क्लब अध्यायों को बढ़ावा दिया है।

जनसत्ता सरोकार: यूरोप और अमेरिका में चरम दक्षिणपंथ का उभार, सीमा बंद करने और अप्रवास विरोधी नारे बढ़ाए राजनीतिक ध्रुवीकरण

यूरोप और अमेरिका में चरम दक्षिणपंथी दल मुख्यधारा में आते जा रहे हैं। अप्रवास विरोध, सीमा बंदी और फासीवादी रुझानों से राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, जो वैश्विक लोकतंत्र और सामाजिक स्थिरता के लिए गंभीर चेतावनी है। यूरोप में चरम दक्षिणपंथी दल, जो ‘रीमाइग्रेशन’ (गैर-नागरिकों को निर्वासित करना) और सीमा बंद करने पर जोर देते हैं, मुख्यधारा में आ रहे हैं।

2024 के यूरोपीय संसद चुनावों में, फ्रांस की नेशनल रैली और जर्मनी के आऊ जैसे दलों ने लगभग 25 फीसद सीटें जीतीं, जो पहले की तुलना में ज्यादा है। ये दल मुसलिम विरोधी और अप्रवासी-विरोधी बयानबाजी पर जोर देते हैं। अप्रवास को अपराध, कल्याण प्रणाली पर दबाव और सांस्कृतिक क्षरण से जोड़ते हैं। आस्ट्रिया की बात करें तो यहां फ्रीडम पार्टी है जो सख्त अप्रवास नियंत्रण की वकालत करती है। 2024 के अंत में 30 फीसद समर्थन के साथ मतदान में आगे थी।

फ्रांस/इटली/जर्मनी में नेशनल रैली (मरीन ले पेन) और ब्रदर्स ऑफ इटली (जार्जिया मेलोनी) जैसे दलों ने फासीवादी विचारों को सामान्य किया है। 2024 में अप्रवासी-विरोधी रुख से लाभ उठाया। जुलाई 2025 में, अप्रवासी केंद्रों पर हमले सहित चरम दक्षिणपंथी घटनाएं बढ़ीं।

जनसत्ता सरोकार: अपना देश पराए लोग, इंग्लैंड से लेकर कनाडा तक प्रवासियों के खिलाफ संगठित होता दक्षिणपंथ

वृहद यूरोप में 2024 की नई शरण नियमावली ‘निवारण’ पर जोर देती है, जिसमें सीमा पर धकेलने की नीतियां शामिल हैं। पर जनमत इसके साथ दिखतता है। देखा गया है कि अनियंत्रित अप्रवास चरमपंथ को बढ़ावा देता है। एक अध्ययनकर्ता ने फ्रांस और जर्मनी में कम आत्मसात दर के कारण दक्षिणपंथ की लोकप्रियता को उजागर किया। आलोचक, हालांकि, फासीवाद के केंद्र के रूप में नस्लवाद (विशेष रूप से अश्वेत और मुस्लिम-विरोधी) की चेतावनी देते हैं।

वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका में सीमा संकट ने खास तरह का राजनीतिक ध्रुवीकरण किया है। अमेरिका में 2024 के चुनाव के दौरान अप्रवासी-विरोधी उन्माद चरम पर था, डोनाल्ड ट्रंप ने अप्रवासियों को ‘आक्रमणकारी’ के रूप में चित्रित किया, जो अपराध और आर्थिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार हैं। मतदान में अवैध अप्रवास शीर्ष चिंता थी, जिसने रिपब्लिकन की जीत में योगदान दिया। 2025 तक, चरम दक्षिणपंथी मिलिशिया सीमाओं पर गश्त कर रहे थे, और निर्वासन की बयानबाजी तेज हो गई।

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कनाडा, जो लंबे समय तक अप्रवास की सफल कहानी रहा, अब तनाव का सामना कर रहा है। 2023-2024 में उच्च प्रवाह (1 मिलियन से अधिक) ने आवास और नौकरियों पर दबाव डाला, जिससे चरम दक्षिणपंथी कथानक को बढ़ावा मिला। कंजर्वेटिव नेता पियरे पाइलिवरे ने अप्रवासियों को मूल समस्याओं जैसे कि सामर्थ्य के लिए जिम्मेदार ठहराया। वहीं, आस्ट्रेलिया में कई तरह के बदलाव उल्लेखनीय हैं। ‘बहुसंस्कृतिवाद’ से 2025 में हजारों लोगों के अप्रवास-विरोधी प्रदर्शनों तक, नयो-नाजी से जुड़े वक्ताओं ने चरमपंथ के जोखिम को उजागर किया।

इनके अंतर्निहित कारण में आर्थिक दबाव (जैसे, आवास की कमी) को अहम माना गया है। अपराध की अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा या पहचान खोने का डर पैदा किया जाता है। सोशल मीडिया इसे बढ़ाता है। इससे चरम दक्षिणपंथ को सबसे अधिक लाभ होता है। लोकलुभावन नेता वोटों के लिए अप्रवास के मुद्दों को गर्म करते रहते हैं। अप्रवास अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाता है। यह श्रम की कमी को पूरा करता है। ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ का कहना है कि यूरोपीय नीतियां वैश्विक असमानता जैसे मूल कारणों को हल किए बिना जीवन को खतरे में डालती हैं। कोई एक सोशल मीडिया पोस्ट गलत धारणा को बखूबी बढ़ा सकता है।

सितंबर 2025 तक यह अलगाववादी भावना कम होने के कोई संकेत नहीं दिखाती। इन देशों में चरम दक्षिणपंथी दलों को 20 से 30 फीसद समर्थन है, जो केंद्रवादी नीतियों को भी प्रभावित कर रहा है (जैसे, यूके की रवांडा योजना)। ट्रंप की अमेरिकी जीत और यूरोप का विखंडन नकल को प्रेरित कर सकता है, लेकिन अतिप्रतिक्रिया लाभकारी अप्रवास को रोक सकती है।

जांच, एकीकरण और जन शिक्षा जैसे संतुलित दृष्टिकोण चरमपंथ को कम कर सकते हैं। यूरोप, अमेरिका, कनाडा व आस्ट्रेलिया जैसे देश इस समय वैश्विकवाद के संक्रमणकाल से जूझ रहे हैं। मावतावाद के जनक देशों में ही इस पर सवाल है।

Leh News: ‘पाकिस्तानी उसे मार नहीं पाए लेकिन हमारी…’, Kargil War के पूर्व सैनिक की विरोध प्रदर्शनों में मौत, पिता ने उठाए सवाल

Leh News: केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर लेह में हिंसक विरोध प्रदर्शन में चार लोगों की मौत हो गई थी। लेह से लगभग 8 किलोमीटर दूर साबू इलाके में एक पहाड़ी पर मौजूद घर में त्सावांग थारचिन का परिवार उनके शव के चारों ओर बैठकर बौद्ध प्रार्थनाएं कर रहा है।

46 साल के थारचिन को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उनके रिश्तेदार और दोस्त उमड़ पड़े हैं, जिनकी 24 सितंबर को लेह में हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दौरान एक गोली उनकी पीठ को चीरती हुई सीने के पास से निकल गई थी। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, वह उन चार लोगों में से एक थे, जिनकी मौत पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में हुई थी।

उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने जान गंवाने वाले चार लोगों के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की थी और कहा था कि और ज्यादा लोगों की जान जाने से रोकने के लिए सभी उपाय किए जाएंगे। कारगिल युद्ध के अनुभवी थारचिन रिटायरमेंट के बाद लेह में एक कपड़े की दुकान चला रहे थे। उन्होंने 1996 से 2017 तक लद्दाख स्काउट्स में हवलदार के रूप में सेवा की थी।

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थारचिन के पिता स्टैनजिन नामग्याल ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “मेरा बेटा देशभक्त था। उसने कारगिल युद्ध लड़ा और तीन महीने तक मोर्चे पर तैनात रहा। उसने दाह टॉप और तोलोलिंग में पाकिस्तानियों से लड़ाई लड़ी। पाकिस्तानी उसे मार नहीं पाए, लेकिन हमारी अपनी फोर्स ने उसकी जान ले ली।”

कारगिल युद्ध के अनुभवी नामग्याल 2002 में सूबेदार मेजर और मानद कैप्टन के पद से रिटायर हुए। नामग्याल ने कहा, “कारगिल युद्ध में मैं और मेरा बेटा साथ-साथ लड़े थे। मैं 3 इन्फैंट्री डिवीजन में था, जबकि थारचिन लद्दाख स्काउट्स में था। थारचिन ने सियाचिन में चार बार सेवा की है। मुझे अपनी सेवाओं के लिए सेनाध्यक्ष से प्रशस्ति पत्र मिला है। सेना में शामिल होना हमारे खून में है। थारचिन के बच्चे भी आर्मी स्कूल में पढ़ रहे हैं और वह चाहते थे कि वे सेना में शामिल हों। क्या सरकार अपने देशभक्तों के साथ ऐसा व्यवहार करती है।”

थारचिन के परिवार में उनकी पत्नी और चार बच्चे हैं। इनमें दो बेटे और दो बेटियां, सबसे बड़ा बेटा सिर्फ 16 साल का है। रिश्तेदार और पड़ोसी उन्हें एक मिलनसार व्यक्ति के रूप में याद करते हैं। थारचिन के परिवार ने उसकी मौत को हत्या बताते हुए आरोप लगाया कि उसके शरीर पर डंडों के निशान हैं, जिससे पता चलता है कि मरने से पहले उसकी पिटाई भी की गई थी।

थारचिन की पत्नी अब पूरे मामले की गहन जांच की मांग कर रही हैं। उन्होंने कहा, “निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। गोली चलाने का आदेश किसने दिया? गोली किसने चलाई? वे भीड़ को आंसू गैस और रबर की गोलियों से क्यों नहीं कंट्रोल कर पाए, हमें सदमा लगा है कि हमारे ही लोगों ने उसे मार डाला।” थारचिन के छोटे भाई ने कहा, “जब भी युद्ध होता है, हम लद्दाखी ही सेना को पूरा सहयोग देते हैं। हम अपने जवानों को सैनिक बनाने के अलावा उनके कुली और मार्गदर्शक भी बनते हैं। हमारी महिलाएं खाना बनाती हैं और सैनिकों को खिलाती हैं और अब हमें देशद्रोही कहा जा रहा है।”

उन्होंने कहा कि लद्दाखियों की जायज मांगों के प्रति सरकार की उदासीनता ही उनके भाई की मौत का कारण बनी है। वे कहते हैं, “लोग क्या मांग रहे हैं? अपनी जमीन और अर्थव्यवस्था पर अधिकार? खुद प्रशासन करने का अधिकार, अपनी अनूठी संस्कृति को बचाए रखने का अधिकार। लेकिन आप इसका जवाब हम पर गोलियां चलाकर और हमारी सबसे मुखर आवाज सोनम वांगचुक को जेल में डालकर कैसे देंगे।” नामग्याल कहते हैं, “मेरे बेटे ने लद्दाख के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। हमें उम्मीद है कि सरकार हमारी बात सुनेगी।”

हिमाचल के स्वास्थ्य मंत्री ने लंदन-फ्रांस यात्रा टाली, बेटे का नाम डेलीगेशन में शामिल करने को लेकर हुआ विवाद

Himachal Pradesh News: हिमाचल प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. (कर्नल) धनीराम शांडिल ने अपने डिपार्टमेंट के 9 सदस्यीय अधिकारियों के दल के साथ अपनी प्रस्तावित विदेश यात्रा शनिवार को स्थगित कर दी। डेलीगेशन में उनके बेटे को शामिल किए जाने को लेकर विवाद पैदा हो गया था। स्वास्थ्य सचिव की तरफ से जारी और भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के सचिव को भेजे गए पत्र के मुताबिक, शांडिल के नेतृत्व में डेलीगेशन 2 अक्टूबर से 11 अक्टूबर तक लंदन और फ्रांस की यात्रा पर जाता।

ऐसा इसलिए ताकि हेल्थ मॉडल को एक्सप्लोर किया जा सके, मेडिकल अचीवमेंट और पॉलिसी फ्रेमवर्क का पता लगाया सके। इस डेलीगेशन में शांडिल के बेटे डॉ. (कर्नल) संजय शांडिल भी अन्य लोगों के साथ शामिल थे। उन्होंने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री के सहयोगी के रूप में दिखाया गया था। जल्दबाजी में बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में शांडिल ने हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश से हुई तबाही का हवाला देते हुए कहा, “राज्य की मौजूदा स्थिति को देखते हुए दौरे को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है।”

यह पूरा घटनाक्रम जय राम ठाकुर द्वारा शांडिल की प्रस्तावित विदेश यात्रा को लेकर राज्य सरकार पर हमला बोलने के कुछ ही घंटों बाद सामने आया है। ठाकुर ने अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट में कहा, “पूरा राज्य आपदा के प्रभाव से जूझ रहा है। न तो सड़कें, न ही बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं बहाल हुई हैं। मरीज इलाज के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटक रहे हैं। हिमकेयर योजना के तहत भुगतान न होने के कारण कैंसर के मरीज इलाज के बीच में ही फंस गए हैं। फिर भी, स्वास्थ्य विभाग सरकारी खर्च पर परिवार और दोस्तों के साथ लंदन-पेरिस की यात्रा की योजना बनाने में व्यस्त है। यह एक बेशर्म सरकार है जिसने शासन में बदलाव का वादा किया था।”

पत्रकारों की तरफ से पूछे गए सवाल पर शांडिल ने माना कि उनके बेटे और बहू दोनों को यात्रा करनी थी, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि वे निजी खर्च पर ऐसा कर रहे हैं। शांडिल ने कहा, “मेरा बेटा स्वास्थ्य कारणों से मेरे साथ यात्रा कर रहा था। परिवार के सदस्य अपने खर्चे पर यात्रा कर सकते हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।”

जब पत्रकारों ने और सवाल पूछे तो शांडिल ने पलटवार करते हुए कहा कि मीडिया को सार्वजनिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि इस पर कि कौन विदेश यात्रा कर रहा है और किसके साथ यात्रा कर रहा है। अपनी विदेश यात्रा के उद्देश्य को सही बताते हुए मंत्री ने कहा, “यह दौरा स्थगित किया गया है, रद्द नहीं किया गया है। हम अगले छह महीनों में इस एक्सपोज़र विजिट पर जा सकते हैं। हमसे आगे के देशों से सीखना हमेशा अच्छा होता है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू को आने दीजिए, मैं उनसे इस विषय पर चर्चा करूंगा।”

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यह पूछे जाने पर कि आधिकारिक पत्र में उनके बेटे को सहयोगी बताया गया है। शांडिल ने कहा कि पत्र का ड्राफ्ट तैयार करने वाले अधिकारी से स्पष्टीकरण मांगा जाएगा। शांडिल के साथ आए प्रतिनिधिमंडल में विधायक संजय रतन और कैप्टन रणजीत राणा (रिटायर्ड), स्वास्थ्य सचिव एम सुधा देवी, स्वास्थ्य सेवाओं के डायरेक्टर डॉ. गोपाल बेरी, एनएचएम मैनेजिंग डायरेक्टर प्रदीप ठाकुर, एचपीएमसी के मैनेजिंग डायरेक्टर दिव्यांशु सिंघल, डायरेक्टर ऑफ मेडिकल एजुकेशन डॉ. राकेश शर्मा, एनएचएम राज्य कार्यक्रम अधिकारी डॉ. अनादि गुप्ता और मंत्री के बेटे शामिल थे।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, सूत्रों के अनुसार, प्रतिनिधिमंडल में मंत्री के बेटे की उपस्थिति की कई तरफ से आलोचना हुई और विपक्ष ने कांग्रेस सरकार पर सार्वजनिक खर्च पर विलासितापूर्ण भ्रमण का प्रयास करने का आरोप लगाया। बीजेपी प्रवक्ता ने कहा कि आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल में मंत्री के परिवार के सदस्य को शामिल करना औचित्य पर सवाल उठाता है। एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने कहा, “ऐसे समय में जब राज्य आर्थिक तंगी से जूझ रहा है, ऐसे में इस तरह की विदेश यात्राएं अनुचित हैं। सरकार को विदेश यात्राओं की योजना बनाने के बजाय स्थानीय अस्पतालों को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए।”

शांडिल ने बीजेपी पर उनके विदेश दौरे के बारे में जानबूझकर गलत सूचना फैलाने का आरोप लगाया। शांडिल ने कहा, “हमने कई सुधार किए हैं। टांडा मेडिकल कॉलेज और चमियाना सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में रोबोटिक सर्जरी शुरू हो गई है। बीजेपी शासन के दौरान, अस्पतालों में न तो डॉक्टर थे और न ही कोई सुविधा। आज हमने 200 डॉक्टरों की भर्ती की है और 200 और नियुक्तियां की जा रही हैं। बहुत जल्द, सभी पैरामेडिकल स्टाफ, डॉक्टर और विशेषज्ञ नियुक्त हो जाएंगे।”

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