अमेरिका ने ‘तानाशाह’ चुना, लेकिन जनता में तानाशाही का विरोध करने की हिम्मत बाकी; ट्रंप के बेतुके UN भाषण ने लोकतंत्र पर छेड़ी नई बहस

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दुनिया अजीब है। जब नरेंद्र मोदी पहली बार शानदार बहुमत लेकर प्रधानमंत्री बने थे, तो कई उदारवादी विदेशी दोस्तों ने मुझसे पूछा कि क्या भारत के मतदाताओं ने एक ‘हिंदू फासीवादी’ को प्रधानमंत्री बनाया है अशिक्षा और राजनीतिक नासमझी की वजह से। मैंने उनको कई तरह से आश्वस्त किया था उस समय कि मामला न अशिक्षा का है, न सोच का। लोगों ने मोदी को जिताया उम्मीदों की बुनियाद पर। दशकों तक ज्यादातर मतदाताओं ने नेहरू-गांधी परिवार को वोट दिया था, यह सोच कर कि इनके अलावा इस देश को कोई संभाल नहीं पाएगा।

याद कीजिए कि इस परिवार से प्रधानमंत्री चुनना आदत बन गई थी 1947 के बाद और जब सोनिया गांधी ने अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज’ को सुन कर प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था, तो अपनी मर्जी के प्रधानमंत्री बनाए थे तीन बार। फिर जब मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में उन्होंने देखा कि देश के प्रधानमंत्री सोनिया गांधी के आदेशों का पालन करते हैं और खुल कर कहते हैं कि राहुल जब भी अपनी गद्दी लेना चाहेंगे, वे उनको सौंप देंगे तो भारत के लोग थोड़ा मायूस हुए और विकल्प ढूंढ़ने की कोशिश में लग गए। विकल्प उनको दिखा जब नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आने का फैसला किया। मोदी ने इतना ताकतवर विकल्प पेश किया कि मेरे जैसे लाखों ‘खान मार्केट गैंग’ के सदस्यों ने उनको वोट दिया।

ये बातें मुझे पिछले सप्ताह तब याद आईं, जब डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सामने ऐसा भाषण दिया जो अगर किसी दूसरे दर्जे की हिंदी फिल्म में कोई अभिनेता देता, तो लोग उसको मजाक में लेते। इस भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति ने पहले तो संयुक्त राष्ट्र को खूब खरी-खोटी सुनाई और उसका मखौल उड़ाते हुए कहा कि उन्होंने सात युद्धों को रोका है जो असल में संयक्त राष्ट्र का काम होना चाहिए। इनमें एक युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच भी गिनाया।

अपनी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने कहा कि दुनिया में जितनी शांति अब दिख रही है, वह पहले कभी नहीं थी और अमेरिका की अर्थव्यवस्था जितनी तरक्की पिछले आठ महीनों में कर चुकी है, पहले किसी ने कभी नहीं देखी है।

जलवायु संकट और धरती के गर्म होने के कारण मौसम के बदलने को उन्होंने सबसे बड़ा ढकोसला बताया और यूरोप को खबरदार किया कि उसके सारे देश बर्बाद हो रहे हैं अवैध प्रवासियों के कारण। चलते-चलते यह भी कह दिया कि रूस का यूक्रेन से युद्ध चल रहा है चीन और भारत के पैसों से।

ट्रंप ने पहले भी बेतुके भाषण दिए हैं, लेकिन यह वाला उन सबसे ज्यादा बेतुका था। ऊपर से ट्रंप ने जो जंग अमेरिका के मीडिया, विश्वविद्यालयों, लोकतांत्रिक संस्थाओं और अपने विरोधियों के खिलाफ छेड़ी है, उसको दुनिया देख कर तय कर चुकी है कि वे लोकतंत्र की थोड़ी भी इज्जत नहीं करते हैं। दुनिया ने यह भी देखा है कि ट्रंप चुने हुए प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों से ज्यादा सम्मान करते हैं व्लादिमीर पुतिन का।

मैं जब इन चीजों के बारे में अपने अमेरिकी दोस्तों से पूछती हूं, तो वे शर्मिंदा होकर मानते हैं कि उनको कोई अधिकार नहीं रहा है दुनिया के बाकी देशों को लोकतंत्र पर प्रवचन देने का। यानी वही हाल है आज अमेरिका का जो भारत का था 2014 में, जब दुनिया के लोग हम पर अंगुलियां उठाते थे।

दोस्तों, इस बात पर भी गौर करना लाजमी है कि ट्रंप की मनमानी के खिलाफ अमेरिका में मशहूर अभिनेता और पत्रकार ऊंची आवाज उठा रहे हैं शुरू से। जब पिछले सप्ताह ट्रंप के दबाव में आकर एबीसी चैनल ने लोकप्रिय टीवी शख्सियत जिमी किमेल का कार्यक्रम बंद कर दिया था कोई बहाना ढूंढ़ कर, तो इतना हल्ला मचाया लोगों ने कि उनका शो वापस लाना पड़ा। ट्रंप ने विरोध जताया, लेकिन कुछ कर नहीं पाए।

कुछ महीने पहले मैं जब अमेरिका में थी, तो ट्रंप ने एक सैनिक परेड शुरू करवाई थी वाशिंगटन में, यह दिखाने के लिए कि अमेरिका के पास कितने आधुनिक और शक्तिशाली हथियार हैं। इस तरह की परेड अमेरिका की परंपरा में नहीं रही है कभी। लोगों को लगा कि ट्रंप अपने आपको शहंशाह समझने लग गए हैं। इसके खिलाफ अमेरिका के तकरीबन हर बड़े शहर में विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें लोगों के हाथों में बड़े-बड़े पोस्टर थे, जिन पर लिखा था ‘नो किंग्स’ यानी महाराजा नहीं चाहिए।

एक ऐसे प्रदर्शन को मैंने खुद देखा और बहुत प्रभावित हुई इसलिए कि अपने देश में इस तरह के प्रदर्शन सिर्फ तब दिखते हैं, जब कोई राजनीतिक दल उनकी अगुआई करता है। आम लोग नहीं निकलते, क्योंकि वे अपने शासकों से डरते हैं चाहे प्रधानमंत्री किसी भी दल का हो।

मुझे सबसे ज्यादा मायूसी होती है अपने निजी टीवी चैनलों का हाल देख कर। इतनी चापलूसी होती है प्रधानमंत्री की इन पर कि दूरदर्शन भी पीछे छूट जाता है इन कथित स्वतंत्र निजी चैनलों के मुकाबले। माना कि आज के दौर में ज्यादा हिम्मत दिखाने वाले पत्रकारों को जेल में डाल देने या देश से निकाल देने की बातें की जाती हैं, लेकिन लोकतंत्र के लिए हम नहीं लड़ेंगे, तो कौन लड़ेगा जनता की तरफ से।

मोदी से पहले जब भी कोई गलत कानून बनता था या सरकार कोई गलत कदम उठाती थी, तो हम सब निकलते थे सड़कों पर विरोध जताने। मैंने खुद इंडिया गेट पर कई बार विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है खासकर तब जब मीडिया पर पाबंदियां लगाने की कोशिश हुईं। इसलिए माना कि अमेरिकी मतदाताओं ने एक तानाशाह को राष्ट्रपति बनाया है, लेकिन उम्मीद कम से कम इसमें है कि लोगों में तानाशाही का विरोध करने की हिम्मत है।